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________________ विषय प्रवेश की भूमिपर उत्पन्न होकर भी अपने में पूर्णता और साक्षात्कारका रूपक लिया तथा अनेक अपरिहार्य विवादोंको जन्म दिया। शासनप्रभावनाके नामपर इन्हीं मतवादोंके समर्थनके लिए शास्त्रार्थ हुए, संघर्ष हुए और दर्शनशास्त्रके इतिहासके पृष्ठ रक्तरञ्जित किये गये। ___ सभी दर्शन विश्वासकी उर्वर-भूमिमें पनपकर भी अपने प्रणेताओंमें साक्षात्कार और पूर्ण ज्ञानको भावनाको फैलाते रहे। फलतः जिज्ञासुकी जिज्ञासा सन्देहके चौराहेपर पहुँचकर भटक गई । दर्शनोंने जिज्ञासुको सत्यसाक्षात्कार या तत्त्वनिर्णयका भरोसा तो दिया, पर अन्ततः उसके हाथमें अनन्त तर्कजालके फलस्वरुप सन्देह ही पड़ा। जैन दृष्टिकोणसे दर्शन अर्थात् नय : जैनदर्शनमें प्रमेयके अधिगमके उपायोंमे 'प्रमाण'के साथ-ही-साथ 'नय' को भी स्थान दिया गया है । 'नय' प्रमाणके द्वारा गृहीत वस्तुके अंशको विषय करनेवाला ज्ञाताका अभिप्राय कहलाता है । ज्ञाता प्रमाणके द्वारा वस्तुका रूप अखण्डभावसे जानता है, फिर उसे व्यवहारमें लानेके लिये उसमें शब्दयोजनाके उपयुक्त विभाग करता है । और एक-एक अंशको जाननेवाले अभिप्रायोंकी सृष्टि करके उन्हें व्यवहारोपयोगी शब्दोंके द्वारा व्यवहारमें लाता है। कुछ नयोंमें पदार्थका प्राथमिक आधार रहनेपर भी आगे वक्ताका अभिप्राय भी शामिल होता है और उसी अभिप्रायके अनुसार पदार्थको देखनेकी चेष्टा की जाती है। अतः सभी नयोंका यथार्थ वस्तुकी सीमामें ही विचरण करना आवश्यक नहीं रह जाता। वे अभिप्रायलोक और शब्दलोकमें भी यथेच्छ विचरते है। तात्पर्य यह है कि पूर्णज्ञानके द्वारा जो वस्तु जानी जाती है, वह व्यवहार तक आते-आते शब्दसंकेत और अभिप्रायसे मिलकर पर्याप्त रंगीन बन जाती है । दर्शन इसी प्रक्रियाको एक अभिप्राय भूमिवाली प्रतिपादन और देखनेकी शैली है, जो एक हद तक वस्तुलक्ष्यी होकर भी विशेष रूपसे अभिप्राय अर्थात् दृष्टिकोणके
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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