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________________ जैनदर्शन और भगवद्गुणोंकी प्रकृष्ट भावनाके बलपर चित्रकूटमें भगवान् रामके दर्शन अवश्य हुए होंगे । आज भक्तोंकी अनगिनत परम्परा अपनी तीव्रतम प्रकृष्ट भावनाके परिपाकसे अपने आराध्यका स्पष्ट दर्शन करती है, यह विशेष सन्देहकी बात नहीं। इस तरह अपने लक्ष्य और दृष्टिकोणकी प्रकृष्ट भावनासे विश्वके पदार्थोंका स्पष्ट दर्शन विभिन्न दर्शनकार ऋषियोंको हुआ होगा यह निःसन्देह है। अतः इसी भावनात्मक साक्षत्कार' के अर्थमें 'दर्शन' शब्दका प्रयोग हुआ है, यह बात हृदयको लगती है और सम्भव भी है । फलितार्थ यह है कि प्रत्येक दर्शनकार ऋषिने पहिले चेतन और जड़के स्वरूप, उनका परस्पर सम्बन्ध तथा दृश्य जगत्की व्यवस्थाके मर्मको जाननेका अपना दृष्टिकोण बनाया, पीछे उसीकी सतत चिन्तन और मननधाराके परिपाकसे जो तत्त्व-साक्षात्कारकी प्रकृष्ट और बलवती भावना हुई उसके विशद और स्फुट आभाससे निश्चय किया कि उनने विश्वका यथार्थ दर्शन किया है तो दर्शनका मूल उद्गम 'दृष्टिकोण' से हुआ है और उसका अन्तिम परिपाक है भावनात्मक साक्षात्कारमें । दर्शन अर्थात् दृढ़ प्रतीति : प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजीने न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भागके प्राक्कथनमें दर्शन शब्दका 'सबल प्रतीति' अर्थ किया है । 'सम्यग्दर्शन' में जो 'दर्शन' शब्द है उसका अर्थ तत्त्वार्थसूत्र (११२ ), में 'श्रद्धान' किया गया है तत्त्वोंकी दृढ़ श्रद्धाको ही सम्यग्दर्शन कहते हैं। इस अर्थसे जिसकी जिस तत्त्वपर दृढ़ श्रद्धा हो अर्थात् अटूट विश्वास हो वही उसका दर्शन है । यह अर्थ और भी हृदयग्राही है; क्योंकि प्रत्येक दर्शनकार ऋषिको अपने दृष्टिकोण पर दृढ़तम विश्वास था ही। विश्वासकी भूमिकाएँ विभिन्न होती ही हैं। जब दर्शन इस तरह विश्वासकी भूमिका पर प्रतिष्ठित हुआ तो उसमें मतभेद होना स्वभाविक ही है। इसी मतभेदके कारण 'मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना' के मूर्तरूपमें अनेक दर्शनोंकी सृष्टि हुई । सभी दर्शनोंने विश्वास
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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