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________________ ५३० जैनदर्शन अभेदकी दिमागी दौड़ में अवश्य शामिल नहीं हुआ और न वह किसी ऐसे सिद्धान्तके समन्वय करनेकी सलाह देता है, जिसमें वस्तुस्थितिको उपेक्षा की गई हो । सर राधाकृष्णन्को पूर्ण सत्यके रूपमें वह काल्पनिक अभेद य ब्रह्म इष्ट है, जिसमें चेतन, अचेतन, मूर्त, अमूर्त सभी काल्पनिक रीति से सम जाते हैं । वे स्याद्वादको समन्वय दृष्टिको अर्धसत्योंके पास लाकर पटकन समझते हैं, पर जब प्रत्येक वस्तु स्वरूपतः अनन्तधर्मात्मक है, तब उस् वास्तविक नतीजे पर पहुँचनेको अर्धसत्य कैसे कह सकते हैं ? हाँ, स्याद्वाद उस प्रमाणविरुद्ध काल्पनिक अभेदकी ओर वस्तुस्थितिमूलक दृष्टिसे नहीं जा सकता । वैसे परमसंग्रहनयकी दृष्टिसे एक चरम अभेदकी कल्पन जैनदर्शनकारोंने भी की है, जिसमें सद्र पसे सभी चेतन और अचेतन सम जाते हैं- "सर्वमेकं सदविशेषात् " 1 - सब एक हैं, सत् रूपसे चेतन अचेतन में कोई भेद नहीं है । पर यह एक कल्पना ही है, क्योंकि ऐसा कोई एक 'वस्तुसत्' नहीं है जो प्रत्येक मौलिक द्रव्यमें अनुगत रहता हो । अतः यदि सर राधकृष्णन्‌को चरम अभेदको कल्पना ही देखनी हो, तो वह परमसंग्रह नयमें देखी जा सकती है । पर वह सादृश्यमूलक अभेदोपचार हो होगा वस्तुस्थिति नहीं । या प्रत्येक द्रव्य अपनी गुण और पर्यायोंसे वास्तविक अभेद रखता है, पर ऐसे स्वनिष्ठ एकत्ववाले अनन्तानन्त द्रव्य लोक वस्तुसत् हैं । पूर्णसत्य तो वस्तुके यथार्थ अनेकान्तस्वरूपका दर्शन ही है न कि काल्पनिक अभेदका खयाल । बुद्धिगत अभेद हमारे आनन्दक विषय हो सकता है, पर इससे दो द्रव्योंकी एक सत्ता स्थापित नहीं हं सकती । कुछ इसी प्रकार के विचार प्रो० बलदेवजी उपाध्याय भी सर राधा कृष्णन्का अनुसरण कर 'भारतीय दर्शन' ( पृ० १७३ ) में प्रक करते है - "इसी कारण यह व्यवहार तथा परमार्थके बीचोंबीच तस्त्वविचारको कतिपय क्षणके लिये विस्रम्भ तथा विराम देनेवाले विश्रामगृहसे बढ़कर अधिक महत्त्व नहीं रखता ।” आप चाहते हैं कि
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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