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________________ स्याद्वाद-मीमांसा ५२९ में से किसी एककी अर्धनिश्चितताकी ओर संकेत मात्र है, निश्चय उससे बिलकुल भिन्न होता है। स्याद्वादको संशय और निश्चयके मध्यमें संभावनावादको जगह रखनेका अर्थ है कि वह एक प्रकारका अनध्यवसाय ही है । परन्तु जब स्याद्वादका प्रत्येक भंग स्पष्ट रूपसे अपनी सापेक्ष सत्यताका अवधारण करा रहा है कि 'घड़ा स्वचतुष्टयकी दृष्टिसे 'है हो', इस दृष्टि से 'नहीं' कभी भी नहीं है । परचतुष्टयकी दृष्टि से 'नहीं ही है', 'है' कभी भी नहीं; तब संशय और संभावनाकी कल्पना ही नहीं की जा सकती । 'घटः स्यादस्त्येव' इसमें जो एवकार लगा हुआ है वह निर्दिष्टधर्मके अवधारणको बताता है। इस प्रकार जब स्याद्वाद सुनिश्चित दृष्टिकोणोंसे उन-उन धर्मोका खरा निश्चय करा रहा है, तब इसे संभावनावादमें नहीं रखा जा सकता। यह स्याद्वाद व्यवहार, निर्वाहके लक्ष्यसे कल्पित धर्मोमें भी भले ही लग जाय, पर वस्तुव्यवस्थाके समय वह वस्तुकी सीमाको नहीं लांघता। अतः न यह संशयवाद है, न अनिश्चयवाद ही, किन्तु खरा अपेक्षाप्रयुक्त निश्चयवाद है। सर राधाकृष्णन्के मतकी मीमांसा : डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन्ने इण्डियन फिलासफो ( जिल्द १ पृ० ३०५-६ ) में स्याद्वादके ऊपर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है कि "इससे हमें केवल आपेक्षिक अथवा अर्धसत्यका ही ज्ञान हो सकता है । स्याहादसे हम पूर्ण सत्यको नहीं जान सकते। दूसरे शब्दोंमें स्याद्वाद हमें अर्धसत्योंके पास लाकर पटक देता है, और इन्हीं अर्धसत्योंको पूर्णसत्य मान लेनेकी प्रेरणा करता है। परन्तु केवल निश्चित अनिश्चित अर्धसत्योंको मिलाकर एकसाथ रख देनेसे वह पूर्णसत्य नहीं कहा जा सकता !" आदि । क्या सर राधाकृष्णन् यह बतानेको कृपा करेंगे कि स्याद्वादने निश्चित-अनिश्चित अर्धसत्योंको पूर्ण सत्य मान लेनेकी प्रेरणा कैसे की है ? हाँ, वह वेदान्तको तरह चेतन और अचेतनके काल्पनिक ३४
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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