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________________ ५२६ जैनदर्शन और सम्यगनेकान्त ही मिल सकते है, मिथ्या अनेकान्त और मिथ्यकान्त जो प्रमाणाभास और दुर्नयके विषय पड़ते है नहीं, वे केवल बुद्धिगत ही है, वैसी वस्तु बाह्य में स्थित नहीं है । अतः एकान्तका निषेध बुद्धिकल्पित एकान्तका ही किया जाता है । वस्तुमें जो एक धर्म है वह स्वभावतः परसापेक्ष होनेके कारण सम्यगेकान्त रूप होता है। तात्पर्य यह कि अनेकान्त अर्थात् सकलादेशका विषय प्रमाणाधीन होता है, और वह एकान्तको अर्थत् नयाधीन विकलादेशके विषयकी अपेक्षा रखता है। यही बात स्वामी समन्तभद्रने अपने बृहत्स्वयम्भूस्त्रोत्रमें कही है “अनेकान्तोऽप्यनेकान्तःप्रमाण-नयसाधनः । अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितानयात् ।।१०२॥" अर्थात् प्रमाण और नयका विषय होनेसे अनेकान्त यानी अनेक धर्मवाला पदार्थ भी अनेकान्तरूप है । वह जब प्रमाणके द्वारा समग्रभावसे गृहीत होता है तव वह अनेकान्त-अनेकधर्मात्मक है और जब किसी विवक्षित नयका विषय होता है तब एकान्त एकधर्मरूप है, उस समय शेष धर्म पदार्थमें विद्यमान रहकर भी दृष्टिके सामने नहीं होते। इस तरह पदार्थकी स्थिति हर हालतमें अनेकान्तरूप ही सिद्ध होती है। प्रो० बलदेवजी उपाध्यायके मतकी आलोचना : ___ प्रो० बलदेवजी उपाध्यायने अपने भारतीयदर्शन ( पृ० १५५ ) में स्याद्वादका अर्थ बताते हुए लिखा है कि "स्यात् ( शायद, सम्भवतः ) शब्द अम् धातुके विधिलिङ्के रूपका तिङन्त प्रतिरूपक अव्यय माना जाता है । घड़ेके विषयमे हमारा मत स्यादस्ति-सम्भवतः यह विद्यमान है' इसी रूपमें होना चाहिए।" यहाँ उपाध्यायजो 'स्यात्' शब्दको शायदका पर्यायवाची तो नहीं मानना चाहते, इसलिये वे शायद शब्दको कोष्ठकमें लिखकर भी आगे 'सम्भवतः' अर्थका समर्थन करते हैं। वैदिक आचार्य स्वामी शंकराचार्यने जो स्याद्वादको गलत बयानी की है उसका संस्कार
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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