SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 561
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्याद्वाद-मीमांसा ५२५ "क्षरमक्षरं च व्यक्तान्यक्तं” (१२८) आदिवाक्योकी संगति भी तो आखिर अपेक्षाभेदके बिना नही बैठाई जा सकती। स्वयं शंकराचार्यजी के द्वारा समन्वयाधिकरणमे जिन श्रुतियोका समन्वय किया गया है, वह भी तो अपेक्षाभेदसे ही संभव हो सका है। स्व० महामहोपाध्याय डॉ० गंगानाथ झाने इस सम्बन्धमे अपनी विचारपूर्ण सम्मतिमे लिखा था कि “जबसे मने शंकराचार्य द्वारा जैन मिद्धान्तका खंडन पढा है, तबसे मुझे विश्वास हुआ है कि इस सिद्धान्तमे बहुत कुछ है जिसे वेदान्तके आचार्योने नही समझा।" हिन्दू विश्वविद्यालयके दर्शनशास्त्रके भूतपूर्व प्रधानाध्यक्ष स्व० प्रो० फणिभूषण अधिकारीने तो और भी स्पष्ट लिखा था कि “जैनधर्मके स्याहाद सिद्धान्तको जितना गलत समझा गया है उतना किसी अन्य सिद्धान्तको नहीं। यहाँ तक कि शंकराचार्य भी इस दोषसे मुक्त नही है। उन्होंने भी इस सिद्धान्तके प्रति अन्याय किया है, यह बात अल्पज्ञ पुरुषोके लिए क्षम्य हो मकती थी। किन्तु यदि मुझे कहनेका अधिकार है तो मै भारतके इस महान् विद्वान्के लिए तो अक्षम्य ही कहूँगा। यद्यपि मै इस महर्षिको अतीव आदरकी दृष्टिमे देखता है। ऐमा जान पडता है कि उन्होने इम धर्मके मल ग्रन्थोके अध्ययनको परवाह नहीं की।" अनेकान्त भी अनेकान्त है : अनेकान्त भी प्रमाण और नयकी दृष्टिसे अनेकान्त अर्थात् कथञ्चित् अनेकान्त और कथञ्चित् एकान्तम्प है। वह प्रमाणका विषय होनेसे अनेकान्तरूप है । अनेकान्त दो प्रकारका है-मम्यगनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त । परस्परमापेक्ष अनेक धर्मोका मकल भावसे ग्रहण करना मम्यगनेकान्त है और परस्पर निरपेक्ष अनेक धर्मोका ग्रहण मिथ्या अनेकान्त है । अन्यमापेक्ष एक धर्मका ग्रहण सम्यगेकान्त है तथा अन्य धर्मका निषेध करके एकका अवधारण करना मिथ्र्यकान्त है । वस्तुमे सम्यगेकान्त
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy