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________________ सप्तभंगी ५०३ अनेकक्षणस्थायी होता है । चूँकि अन्वयी मृद्द्द्रव्यकी अपेक्षा स्थास, कोश, कुशूल, कपाल आदि पूर्वोत्तर अवस्थाओं में भी 'घट' व्यवहार संभव है । अतः मध्यक्षणवर्ती 'घट' पर्याय स्वात्मा है तथा अन्य पूर्वोत्तर पर्यायें परात्मा । उमी अवस्था में वह घट है, क्योंकि घटके गुण, क्रिया आदि उसी अवस्थामें पाये जाते हैं । (५) उम मध्यकालवती घट पर्यायमें भी प्रतिक्षण उपचय और अपचय होता रहता है, अतः ऋजुगुत्रनयको दृष्टिसे एकक्षणवर्ती घट ही स्वात्मा है, अनीत अनागत कालीन उसी घटको पर्यायें परात्मा है । यदि प्रत्युत्पन्न क्षणकी तरह अतीत और जनागत क्षणोंसे भी घटका अस्तित्व माना जाय तो सभी घट वतमान क्षणमात्र ही हो जायगें । अतीत और अनागतकी तरह प्रत्युत्पन्न क्षणसे भी असत्त्व माना जाय, तो जगतसे घटव्यवहारका लोप ही हो जायगा । (६) उस प्रत्युत्पन्न घट क्षणमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, आकार आदि अनेक गुण और पर्याय हैं, अतः घडा पृथुवुनीदाकारसे है; क्योंकि घटव्यवहार इसी आकारसे होता है, अन्यसे नहीं । (७) आकार में रूप, रस आदि सभी हैं । घड़ेके रूपको आँखसे देखकर ही घड़े के अस्तित्वका व्यवहार होता है, अत: रूप स्वात्मा है तथा रसादि परात्मा । ओखसे घड़ेको देखता हूँ, यहां रूपकी तरह रसादि भी घटके स्वात्मा हो जॉय, तो रसादि भी चक्षुग्राद्य होनेसे रूपात्मक हो जायेंगे। ऐसी दशामें अन्य इन्द्रियोंको कल्पना ही निरर्थक हो जाती है । (८) शब्दभेदसे अर्थभेद होता है । अतः घट शब्दका अर्थ जुदा है तथा कुट आदि शब्दांका जुदा, घटन क्रियाके कारण घट है तथा कुटिल होनेसे कुट । अतः बड़ा जिस समय घटन क्रियामें परिणत हो, उसी समय उसे घट कहना चाहिये । इसलिये घटन क्रियामें कर्त्तारूपसे उपयुक्त होनेवाला स्वरूप स्वात्मा है और अन्य परात्मा । यदि इतररूपसे भी घट कहा जाय, तो पटादिमें भी घटव्यवहार होना चाहिये। इस तरह सभी पदार्थ एक शब्दके वाच्य हो जायगें 1 (९) घटशब्द के प्रयोगके बाद उत्पन्न घटानाकार स्वात्मा है, क्योंकि वही अन्तरंग है और अहे है, बाह्य घटाकार परात्मा है, अतः घडा उपयोगाकारसे है, अन्यसे नहीं । (१०) चैतन्यशक्तिके दो आकार होते हैं -१ ज्ञानाकार २ शेयाकार । प्रतिबिम्बशून्य दर्पणकी तरह ज्ञानाकार है और सप्रतिबिम्ब दर्पणको तरह शेयाकार । इनमें शेयाकार स्वात्मा है क्योंकि घटाकार शानसे ही घटव्यवहार होता है। ज्ञानाकार परात्मा है, क्योंकि वह सर्वसाधारण है । यदि ज्ञानाकारसे घट माना जाय तो 'पटादि ज्ञान कालमें भी वटव्यवहार होना चाहिए । यदि ज्ञेयाकार से भी घट 'नास्ति ' माना जाय, तो घट व्यवहार निराधार हो जायगा ।"
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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