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________________ ५०२ जैनदर्शन कारण फलित होनेवाला ही विवक्षित है । वस्तुके पूर्णरूपवाला अवक्तव्य भी यद्यपि एक धर्म ही होता है, पर उसका इस सप्तभंगीवाले अवक्तव्यसे भेद है । उसमें भी पूर्णरूपसे अवक्तव्यता और अंशरूपसे वक्तव्यताको विवक्षा करने पर सप्तभंगी बनाई जा सकती है । किन्तु निरुपाधि अनिवचनीयता और विवक्षित दो धर्मोको युगपत् कह सकनेकी असामर्थ्यजन्य अवक्तव्यतामें व्याप्य व्यापकरूपसे भेद तो है ही । 'सत्' विषयक सप्तभंगी में प्रथमभंग ( १ ) स्यादस्ति घटः, दूसरा इसका प्रतिपक्षी ( २ ) स्यान्नास्ति घट:, तीसरा भंग युगपत् कहने की असामर्थ्य होनेसे (३) स्यादवक्तव्यो घटः चौथा भंग क्रमसे प्रथम और द्वितीयको विवक्षा होने पर ( ४ ) स्यादुभयो घटः, पाँचवाँ प्रथम समयमें अस्तिकी और द्वितीय समय में अवक्तव्यको क्रमिक विवक्षा होनेपर (५) स्यादस्ति अवक्तव्यो घटः, छठवां प्रथम समय में नास्ति और द्वितीय समयमें अवक्तव्यको क्रमिक विवक्षा होने पर ( ६ ) स्यान्नास्ति अवक्तव्यो घट:, सातवाँ प्रथम समयमें अस्ति, द्वितीय समय में नास्ति और तृतीय समयमें अवक्तव्यको क्रमिक विवक्षा होनेपर (७) स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्यो घटः, इस प्रकार सात भंग होते है | प्रथम भंग - घटका अस्तित्व स्वचतुष्टय की दृष्टिसे है । उसके अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ही अस्तित्व के नियामक हैं । १. घड़ेके स्वचतुष्टय और परचतुष्टयका विवेचन तत्त्वार्थवार्तिक (१।६) में इस प्रकार है - (१) जिसमें 'घट' बुद्धि और 'घट' शब्दका व्यवहार हो वह स्वात्मा तथा उससे भिन्न परात्मा । 'घट' स्वात्माकी दृष्टिसे अस्ति है और परात्माकी दृष्टिसे नास्ति । ( 2 ) नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपोंका जो आधार होता है वह स्वात्मा तथा अन्य परात्मा । यदि अन्य रूपसे भी 'घट' अस्ति कहा जाय तो प्रतिनियत नामादि व्यवहारका उच्छेद ही हो जायगा । (३) 'घट' शब्दके वाच्य अनेक घड़ोंमेंसे विवक्षित अमुक घटका जो आकार आदि है वह स्वात्मा, अन्य परात्मा । यदि इतर घटके आकारसे भी वह 'घट' अस्ति हो, तो सभी घड़े एकरूप हो जायेंगे । ( ४ ) अमुक घट भी द्रव्यदृष्टिसे
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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