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________________ नय-विचार “जे वयणिजवियप्पा सुंजुज्जतेसु होंति एएसु । सा ससमयपण्णवणा तित्थयरासायणा अण्णा ॥" -सन्मति० ११५३ । जो वचनविकल्परूपी नय परस्पर सम्बद्ध होकर स्वविषयका प्रतिपादन करते है वह उनकी स्वसमयप्रज्ञापना है तथा अन्य-निरपेक्षवृत्ति तीर्थङ्करकी आसादना है। आचार्य कुन्दकुन्द इसी तत्त्वको बड़ी मार्मिक रीतिसे समझाते है"दोण्ह वि णयाण भणियं जाणइ णबरं तु समयपडिबद्धो। ण दु णयपक्खं गिण्हदि किश्चि वि णयपक्खपरिहीणो ॥" -समयसार गाथा १४३ । स्वसमयो व्यक्ति दोनों नयोंके वक्तव्यको जानता तो है, पर किसी एक नयका तिरस्कार करके दूसरे नयके पक्षको ग्रहण नहीं करता। वह एक नयको द्वितीयसापेक्षरूपसे ही ग्रहण करता है। वस्तु जब अनन्तधर्मात्मक है तब स्वभावतः एक-एक धर्मको पहण करनेवाले अभिप्राय भी अनन्त ही होंगे; भले ही उनके वाचक पृथक्-पृथक् शब्द न मिलें, पर जितने शब्द हैं उनके वाच्य धर्मोको जाननेवाले उतने अभिप्राय तो अवश्य ही होते हैं। यानी अभिप्रायोंकी संख्याकी अपेक्षा हम नयोंकी सीमा न बाँध सकें, पर यह तो सुनिश्चितरूपसे कह ही सकते हैं कि जितने शब्द हैं उतने तो नय अवश्य हो सकते हैं; क्योंकि कोई भी वचनमार्ग अभिप्रायके बिना हो ही नहीं सकता। ऐसे अनेक अभिप्राय तो संभव है जिनके वाचक शब्द न मिलें, पर ऐसा एक भी सार्थक शब्द नहीं हो सकता, जो बिना अभिप्रायके प्रयुक्त होता हो । अतः सामान्यतया जितने शब्द है उतने नय हैं। १. "जावइया वयणपहा तावइया होंति णयवाया।" -सन्मति०-३४७॥
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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