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________________ ४४४ जैनदर्शन है, नयमें केवल 'तत्' की प्रतिपत्ति होती है, पर दुर्नय अन्यका निराकरण करता है । 'प्रमाण 'सत्' को ग्रहण करता है, और नय 'स्यात् सत्' इस तरह सापेक्ष रूपसे जानता है जब कि दुर्नय 'सदेव' ऐसा अवधारणकर अन्यका तिरस्कार करता है। निष्कर्ष यह कि सापेक्षता ही नयको प्राण है। आचार्य सिद्धसेनने अपने सन्मतिसूत्र ( ११२१-२५ ) में कहा हैं कि "तम्हा सव्वे वि णया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा । अण्णोण्णणिस्सिआ उण हवन्ति सम्मत्तसब्भावा ।।" -सन्मति० १॥२२॥ वे सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं जो अपने ही पक्षका आग्रह करते हैंपरका निषेध करते हैं, किन्तु जब वे ही परस्पर सापेक्ष और आन्योन्याश्रित होते हैं तब सम्यक्त्वके सद्भाववाले होते हैं अर्थात् सम्यग्दृष्टि होते हैं। जैसे अनेक प्रकारके गुणवालो वैडूर्य आदि मणियाँ महामूल्यवाली होकर भी यदि एक सूत्रमें पिरोई हुई न हों, परस्पर घटक न हों तो 'रत्नावली' संज्ञा नहीं पा सकतीं, उसी तरह अपने नियत वादोंका आग्रह रखनेवाले परस्पर-निरपेक्ष नय सम्यक्त्वपनेको नहीं पा सकते, भले ही वे अपने-अपने पक्षके लिये कितने ही महत्त्वके क्यों न हों। जिस प्रकार वे ही मणियाँ एक सूतमें पिरोईं जाकर 'रत्नावली या रत्नाहार' बन जाती है उसी तरह सभी नय परस्परसापेक्ष होकर सम्यक्पनेको प्राप्त हो जाते हैं, वे सुनय बन जाते हैं। अन्तमें वे कहते हैं१. 'सदेव सत् स्यात् सदिति त्रिधाथों मोयेत दुनीतिनयप्रमाणैः ।' -अन्ययोगव्य० श्लो० २८ । २. 'निरपेक्षा नय मिथ्याः सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ।' -आप्तमी० श्लो० १०८। T
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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