SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 478
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४० जैनदर्शन ओंके प्रमाण और फलोंमें जैसे प्रमाण-फलभाव नहीं बनता, उसी तरह एक आत्माके प्रमाण और फलमें भी प्रमाण-फलव्यवहार नहीं होना चाहिये । समवायसम्बन्ध भी सर्वथा भेदकी स्थितिमें नियामक नहीं हो सकता। यदि सर्वथा अभेद माना जाता है तो यह प्रमाण है और यह फल' इस प्रकारका भेदव्यवहार और कारणकार्यभाव भी नहीं हो सकेगा। जिस आत्माको प्रमाणरूपसे परिणति हुई है उसीको अज्ञाननिवृत्ति होती है, अतः एक आत्माकी दृष्टिसे प्रमाण और फलमे अभेद है और साधकतमकरणरूप तथा प्रमितिक्रियारूप पर्यायोंकी दृष्टिसे उनमें भेद है। अतः प्रमाण और फलमें कथञ्चिद् भेदाभेद मानना ही उचित है।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy