SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 477
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३९ उभयस्वतन्त्रवादमीमांसा खरविषाणकी तरह सत्तासम्बन्ध हो नहीं सकता। इसी तरह अन्य सामान्यों के सम्बन्धमें भी समझना चाहिए । जिस तरह सामान्य, विशेष और समवाय स्वतः सत् हैं-इनमें किसी अन्य सत्ताके सम्बन्धकी कल्पना नहीं की जाती, उसी तरह द्रव्यादि भी स्वतःसिद्ध सत् हैं, इनमें भी सत्ताके सम्बन्धकी कल्पना निरर्थक है। वैशेषिक तुल्य आकृतिवाले और तुल्य गुणवाले परमाणुओंमें, मुक्त आत्माओंमें और मुक्त आत्माओं द्वारा त्यक्त मनोंमें भेद-प्रत्यय करानेके लिये इन प्रत्येकमें एक विशेष नामक पदार्थ मानते हैं । ये विशेष अनन्त हैं और नित्यद्रव्यवृत्ति हैं । अन्य अवयवी आदि पदार्थों में जाति, आकृति और अवयवसंयोग आदिके कारण भेद किया जा सकता है, पर समान आकृतिवाले, समानगुणवाले नित्य द्रव्योंमें भेद करनेके लिये कोई अन्य निमित्त चाहिये और वह निमित्त है विशेष पदार्थ । परन्तु प्रत्ययके आधारसे पदार्थ-व्यवस्था माननेका सिद्धान्त ही गलत है । जितने प्रकारके प्रत्यय होते हैं, उतने स्वतन्त्र पदार्थ यदि माने जायें तो पदार्थोंको कोई सीमा ही नहीं रहेगी। जिस प्रकार एक विशेष दूसरे विशेषसे स्वतः व्यावृत्त है, उसमें अन्य किसी व्यावर्तककी आवश्यकता नहीं है, उसी तरह परमाणु आदि समस्त पदार्थ अपने असाधारण निज स्वरूपसे ही स्वतः व्यावृत्त रह सकते है, इसके लिये भी किसी स्वतत्र विशेष पदार्थकी कोई आवश्यकता नहीं हैं। व्यक्तियां स्वयं ही विशेष हैं। प्रमाणका कार्य है स्वतःसिद्ध पदार्थोंको असंकर व्याख्या करना न कि नये-नये पदार्थोंकी कल्पना करना। फलाभास: प्रमाणसे फलको सर्वथा अभिन्न या सर्वथा भिन्न कहना फलाभास है । यदि प्रमाण और फलमें सर्वथा भेद माना जाता है; तो भिन्न-भिन्न आत्मा१. परीक्षामुख ६।६६-७२।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy