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________________ ४२८ जैनदर्शन स्वलक्षण, चाहे चेतन हो या अचेतन, क्षणिक और परमाणुरूप हैं । जो जहाँ और जिस कालमें उत्पन्न होता है वह वहीं और उसी समय नष्ट हो जाता है । कोई भी पदार्थ देशान्तर और कालान्तरमें व्याप्त नहीं हो सकता, वह दो देशोंको स्पर्श नहीं कर सकता। हर पदार्थका प्रतिक्षण नष्ट होना स्वभाव है। उसे नाशके लिए किसी अन्य कारणकी आवश्यकता नहीं है। अगले क्षणको उत्पत्तिके जितने कारण हैं उनसे भिन्न किसी अन्य कारणकी अपेक्षा पूर्वक्षणके विनाशको नहीं होती, वह उतने ही कारणोंसे हो जाता है, अतः उसे निर्हेतुक कहते है। निर्हेतुका अर्थ 'कारणोंके अभावमें हो जाना' नहीं है, किन्तु 'उत्पादके कारोंसे भिन्न किसी अन्य कारणकी अपेक्षा नहीं रखना' यह है । हर पूर्वक्षण स्वयं विनष्ट होता हुआ उत्तरक्षणको उत्पन्न करता जाता है और इस तरह एक वर्तमानक्षण ही अस्तित्वमें रहकर धाराकी क्रमबद्धताका प्रतीक होता है । पूर्वोत्तर क्षणोंकी इस सन्ततिपम्परामें कार्यकारणभाव, और बन्धमोक्ष आदिकी व्यवस्था बन जाती है। स्थिर और स्थूल ये दोनों ही मनकी कल्पना है। इनका प्रतिभास सदृश उत्पत्तिमें एकत्वका मिथ्या भान होनेके कारण तथा पुञ्जमें सम्बद्धबुद्धि होनेके कारण होता है । विचार करके देखा जाय, तो जिसे हम स्थूल पदार्थ कहते है, वह मात्र परमाणुओंका पुञ्ज ही तो है । अत्यासन्न और असंसृष्ट परमाणुओंमे स्थूलताका भ्रम होता है। एक परमाणुका दूसरे परमाणुसे यदि सर्वात्मना संसर्ग माना जाता है; तो दो परमाणु मिलकर एक हो जायगे और इसी क्रमसे परमाणुओंका पिण्ड अणुमात्र ही रह जायगा । यदि एक देशसे संसर्ग माना जाता है; तो छहों दिशाओंके छह परमाणुओंके १. 'यो यत्रैव स तत्रैव यो यदैव तदैव सः । न देशकालयोव्याप्तिर्भावानानिह विद्यते ॥' -उद्धृत प्रमेयरत्नमाला ४।।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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