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________________ सांख्यतस्वमीमांसा ४२७ प्रकृतिसंसर्ग तो छूटा नहीं है, संयोग तो उसका कायम है ही । प्रकृतिको चरितार्थ तो इसलिये कहा है कि जो पुरुष पहले उसके संसर्गस संसार में प्रवृत्त होता था, वह अब संसरण नहीं करता। अतः चरितार्थ और प्रवृत्तार्थ व्यवहार भी पुरुषको ओरसे ही है, प्रकृतिकी ओरसे नहीं। जब पुरुष स्वयं राग, विराग, विपर्यय, विवेक और ज्ञान-विज्ञानरूप परिणमनोंका वास्तविक उपादान होता है, तब उसे हम लंगड़ा नहीं कह सकते । एक दृष्टिसे प्रकृति न केवल अन्धी है, किन्तु पुरुषके परिणमनोंके लिये वह लँगड़ी भी है। 'जो करे वह भोगे' यह एक निरपवाद सिद्धान्त है। अतः पुरुषमें जब वास्तविक भोक्तृत्व माने विना चारा नहीं है, तब वास्तविक कर्तृत्व भी उसीमें मानना ही उचित है । जब कर्तृत्व और भोक्तृत्व अवस्थाएँ पुरुषगत ही हो जाती है, तब उसका कूटस्थ नित्यत्व अपने आप समाप्त हो जाता है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप परिणाम प्रत्येक सत्का अपरिहार्य लक्षण है, चाहे चेतन हो या अचेतन, मूर्त हो या अमूर्त, प्रत्येक सत् प्रतिक्षण अपने स्वाभाविक परिणामी स्वभावके अनुसार एक पर्यायको छोड़कर दूसरी पर्यायको छोड़कर दूसरी पर्यायको धारण करता चला जा रहा है। ये परिणमन सदृश भी होते है और विसदृश भी। परिणमनकी धाराको तो अपनी गतिसे प्रतिक्षण बहना है । बाह्याभ्यन्तर सामग्रीके अनुसार उसमें विविधता बराबर आती रहती है। सांख्यके इस मतको केवल सामान्यवादमें इसलिए शामिल किया है कि उसने प्रकृतिको एक, नित्य, व्यापक और अखण्ड तत्त्व मानकर उसे हो मूर्त, अमूर्त आदि विरोधी परिणमनोंका सामान्य आधार माना है । विशेष पदार्थवाद: बौद्धका पूर्वपक्ष: बौद्ध साधारणतया विशेष पदार्थको ही वास्तविक तत्त्व मानते हैं।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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