SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन गये । १२ वर्ष तक कठोर साधना करनेके बाद ४२ वर्षकी अवस्थामें इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। ये वीतराग और सर्वज्ञ बने। ३० वर्ष तक इन्होंने धर्मतीर्थका प्रवर्तन कर ७२ वर्षको अवस्थामें पावा नगरीसे निर्वाण लाभ किया। सत्य एक और त्रिकालाबाधित : निर्ग्रन्थ नाथपुत्त भगवान् महावीरको कुल-परम्परासे यद्यपि पार्श्वनाथके तत्त्वज्ञानको धारा प्राप्त थी, पर ये उस तत्त्वज्ञान के मात्र प्रचारक नहीं थे, किन्तु अपने जीवनमें अहिंसाकी पूर्ण साधना करके सर्वोदय मार्गके निर्माता थे । मैं पहले बता आया हूँ कि इस कर्मभूमिमें आद्य तीर्थंकर ऋषभदेवके बाद तेईस तीर्थङ्कर और हुए है। ये सभी वीतरागी और सर्वज्ञ थे। इन्होंने अहिंसाकी परम ज्योतिसे मानवताके विकासका मार्ग आलोकित किया था। व्यक्तिकी निराकुलता और समाजमें शान्ति स्थापन करनेके लिये जो मूलभूत तत्त्वज्ञान और सत्य साक्षात्कार अपेक्षित होता है, उसको ये तीर्थङ्कर युगरूपता देते है। सत्य त्रिकालाबाधित और एक होता है। उसकी आत्मा देश, काल और उपाधियोंसे परे सदा एकरस होती है । देश और काल उसकी व्याख्याओंमें यानी उसके शरीरोमें भेद अवश्य लाते है, पर उसकी मूलधारा सदा एकरसवाहिनी होती है । इसीलिये जगत्के असंख्य श्रमण-सन्तोंने व्यक्तिको मक्ति और जगतकी शान्तिके लिये एक ही प्रकारके सत्यका साक्षात्कार किया है और वह व्यापक मूल सत्य है 'अहिंसा'। जैनधर्म और दर्शनके मूल मुद्दे : ____ इसी अहिंसाकी दिव्य ज्योति विचारके क्षेत्रमें अनेकान्तके रूपमें प्रकट होती है तो वचन-व्यवहारके क्षेत्रमें स्याद्वादके रूपमें जगमगाती है और १. “जे य अतीता पडुप्पन्ना अनागता य भगवंतो अरिहंता ते सव्वे एयमेव धम्म" -आचारांग सू०।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy