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________________ ३३० जैनदर्शन (६) अविरुद्ध उत्तरचरानुपलब्धि - एक मुहूर्त पहले भरणीका उदय नहीं हुआ, क्योंकि अभी कृत्तिकाका उदय नहीं है । (७) अविरुद्ध सहचरानुपलब्धि — इस समतराजूका एक पलड़ा नीचा नहीं है, क्योंकि दूसरा पलड़ा ऊंचा नहीं पाया जाता । १ विधिसाधक तीन विरुद्धानुपलब्धियाँ - ( १ ) विरुद्ध कार्यानुपलब्धि - इस प्राणीमें कोई व्याधि है, क्योंकि इसकी चेष्टाएँ नीरोग व्यक्तिकी नहीं है । ( २ ) विरुद्ध कारणानुपलब्धि - इस प्राणीमें दुःख है, क्योंकि इष्टसंयोग नहीं देखा जाता । ( ३ ) विरुद्धस्वभावानुपलब्धि - वस्तु अनेकान्तात्मक है, क्योंकि एकान्त स्वरूप उपलब्ध नहीं होता । इन अनुपलब्धियोंमे साध्यसे विरुद्धके कार्य, कारण आदिकी अनुपलब्धि बतायी गई है। हेतुओं का यह वर्गीकरण परीक्षामुखके आधारसे है । वादिदेवसूरिने 'प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार' ( ३|६४ ) में विधिसाधक तीन अनुपलब्धियोंकी जगह पाँच अनुपलब्धियाँ बताई है तथा निषेधसाधक छह अनुपलब्धियोंकी जगह सात अनुपलब्धियाँ गिनाई है । आचार्य विद्यानन्द ने वैशेषिकोंके अभूत-भूतादि तीन प्रकारोंमें 'अभूत अभूतका' यह एक प्रकार और बढ़ाकर सभी विधि और निषेध साधक उपलब्धियों तथा अनुपलब्धियोंको इन्हींमे अन्तर्भूत किया है । अकलंकदेवने 'प्रमाणसंग्रह' ( पृ० १०४ - ५ ) सद्भावसाधक छह और प्रतिषेघसाधक तीन इस तरह नव उपलब्धियाँ और प्रतिषेधसाधक छह अनुपलब्धियोंका कंठोक्त वर्णन करके शेषका इन्हीं में अन्तर्भाव करनेका संकेत किया है । १. परीक्षामुख ३।८१-८४ । २. प्रमाणपरीक्षा पृ० ७२-७४ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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