SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 360
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२२ जैनदर्शन हो सकता है, त्रैरूप्य आदि नहीं । इस आशयका एक प्रचीन श्लोक मिलता है, जिसे अकलंकदेवने न्यायविनिश्चय ( श्लो० ३२३ ) में शामिल किया है । तत्त्वसंग्रहपंजिकाके अनुसार यह श्लोक पात्रस्वामीका है । “अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ? नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ?" अर्थात् जहाँ अन्यथानुपपत्ति या अविनाभाव है वहाँ त्ररूप्य माननेसे कोई लाभ नहीं और जहाँ अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहाँ त्रैरूप्य मानना भी व्यर्थ है। आचार्य विद्यानन्दने इसीकी छायासे पंचरूपका खंडन करनेवाला निम्नलिखित श्लोक रचा है "अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः ? नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः ॥" -प्रमाणपरीक्षा पृष्ठ ७२ । अर्थात् जहाँ ( कृत्तिकोदय आदि हेतुओंमें ) अन्यथानुपपन्नत्व-अविनाभाव है वहाँ पञ्चरूप न भी हों तो भी कोई हानि नहीं है, उनके मानने से क्या लाभ ? और जहाँ ( मित्रातनयत्व आदि हेतुओंमें ) पञ्चरूप हैं और अन्यथानुपपन्नत्व नहीं है, वहाँ पञ्चरूप माननेसे क्या ? वे व्यर्थ हैं। __ हेतुबिन्दुटीकामें इन पाँच रूपोंके अतिरिक्त छठवें 'ज्ञातत्व' स्वरूपको माननेवाले मतका उल्लेख पाया जाता है। यह उल्लेख सामान्यतया नैयायिक और मीमांसकका नाम लेकर किया गया है। पांच रूपोंमें अस १. 'अन्यथेत्यादिना पात्रस्वामि मतमाशङ्कते ।' -तत्वसं० पं० श्लो० १३६४ । २. 'षड्लक्षणो हेतुरित्यपरे नैयायिकमीमांसकादयो मन्यन्ते तथा विवक्षितैकसंख्यत्वं रूपान्तरम्-एका संख्या यस्य हेतुद्रव्यस्य तदेकसंख्यं “योकसंख्यावच्छिन्नायां प्रतिहेतुरहितायां तथा शातत्वं च ज्ञानविषयत्वम् ।'-हेतुबि० टी० पृ० २०६ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy