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________________ प्रमाणमीमांसा २६५ विषय है । प्रत्यक्ष और परोक्ष के लक्षण और विभाजनमें भी यही दृष्टि काम कर रही है और उसके निर्वाहके लिए 'अक्ष' शब्दका अर्थ' आत्मा किया गया है। प्रत्यक्ष शब्दका प्रयोग जो लोकमें इन्द्रियप्रत्यक्षके अर्थमें देखा जाता है उसे सांव्यवहारिक संज्ञा दी गई है, यद्यपि आगमिक परमार्थ व्याख्याके अनुसार इन्द्रियजन्य ज्ञान परसापेक्ष होनेसे परोक्ष है; किन्तु लोकव्यवहारको भी उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। जैन दृष्टिमें उपादानयोग्यतापर ही विशेष भार दिया गया है। निमित्तसे यद्यपि उपादानयोग्यता विकसित होती है, परन्तु निमित्तसापेक्ष परिणमन उत्कृष्ट और शुद्ध नहीं माने जाते । इसीलिए प्रत्यक्ष जैसे उत्कृष्ट ज्ञान में उपादान आत्मा की ही अपेक्षा मानी है, इन्द्रिय और मन जैसे निकटतम साधनोंकी नहीं । आत्ममात्र-सापेक्षता प्रत्यक्ष व्यवहारका कारण है और इन्द्रियमनोजन्यता परोक्षव्यवहारकी नियामिका है। यह जैन दृष्टिका अपना आध्यात्मिक निरूपण है । तात्पर्य यह है कि जो ज्ञान सर्वथा स्वावलम्बी है, जिसमें बाह्य साधनोंकी आवश्यकता नहीं है वही ज्ञान प्रत्यक्ष कहलानेके योग्य है, और जिसमें इन्द्रिय, मन और प्रकाश आदि साधनोंको आवश्यकता होती है, वे ज्ञान परोक्ष है । इस तरह मलमें प्रमाणके दो भेद होते है-एक प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष । प्रत्यक्ष प्रमाण : सिद्धसेन दिवाकर ने प्रत्यक्षका लक्षण 'अपरोक्षरूपने अर्थका ग्रहण करना प्रत्यक्ष है' यह किया है। इस लक्षणमें प्रत्यक्षका स्वरूप तब तक समझमें नहीं आता, जब तक कि परोक्षका स्वरूप न समझ लिया जाय । १ 'अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातोत्यक्ष आत्मा'-सर्वार्थसि० पृ० ५९ । २ 'अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं शानमीदृशम् ।। प्रत्यक्षमितरज्शेयं परोक्षं ग्रहणेक्षया ॥'-न्यायावतार श्लो० ४ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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