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________________ २६४ जैनदर्शन इसलिए अप्रमाण नहीं हो सकता कि उसने गृहीतको ग्रहण किया है। तात्पर्य यह कि नैयायिकको प्रत्येक अवस्थामें प्रमाणसंप्लव स्वीकृत है। जैन परंपरामें अवग्रहादि ज्ञानोंके ध्रुव और अध्र व भेद भी किये हैं । ध्रुवका अर्थ है जैसा ज्ञान पहले होता है वैसा ही बादमें होना। ये ध्रुवाधग्रहादि प्रमाण भी हैं। अतः सिद्धान्तदृष्टिसे जैन अपने नित्यानित्य पदार्थमें सजातीय या विजातीय प्रमाणोंकी प्रवृत्ति और संवादके आधारसे उनकी प्रमाणताको स्वीकार करते ही हैं। जहां विशेषपरिच्छेद होता है वहाँ तो प्रमाणता है हो, पर जहाँ विशेषपरिच्छेद नहीं भी हो, पर यदि संवाद है तो प्रमाणताको कोई नहीं रोक सकता। यद्यपि कहीं गृहीतग्राही ज्ञानको प्रमाणाभासमें गिनाया है, पर ऐसा प्रमाणके लक्षणमें 'अपूर्वार्थ' पद या 'अनधिगत' विशेषण देनेके कारण हुआ है। वस्तुतः ज्ञानको प्रमाणताका आधार अविसंवाद या सम्यग्ज्ञानत्व ही है; अपूर्वार्थग्राहित्व नहीं। पदार्थके नित्यानित्य होनेके कारण उसमें अनेक प्रमाणोंकी प्रवृत्तिका पूरा-पूरा अवसर है । प्रमाणके भेद: प्राचीन कालसे प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद निर्विवाद रूपसे स्वीकृत चले आ रहे हैं। आगमिक परिभाषामें आत्ममात्रसापेक्ष ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं, और जिन ज्ञानोंमें इन्द्रिय, मन और प्रकाश आदि परसाधनोंकी अपेक्षा होती है वे परोक्ष हैं । प्रत्यक्ष और परोक्षको यह 'परिभाषा जैन परंपराकी अपनी है। उसमें प्रत्येक वस्तु अपने परिणमनमें स्वयं उपादान होती है। जितने परनिमित्तक परिणमन हैं, वे सब व्यवहारमूलक हैं । जो मात्र स्वजन्य हैं, वे ही परमार्थ हैं और निश्चयनयके १. परीक्षामुख ६१। २. 'जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्खत्ति भणिदमत्थेसु । जं केवलण णादं हवदि हु जीवेण पच्चक्खं ॥'-प्रवचनसार गा० ५८ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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