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________________ मोक्ष तत्त्व-निरूपण २३१ का प न होनेके कारण आगे बन्धन नहीं कराता। यह आस्रव जीवन्मुक्त महात्मानोंके जब तक शरीरका सम्बन्ध है, तब तक होता है । इस तरह योग और कषाय, दूसरेके ज्ञानमें बाधा पहुँचाना, दूसरेको कष्ट पहुँचाना, दूसरेकी निन्दा करना आदि जिस-जिस प्रकारके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय आदि क्रियायोंमें संलग्न होते है, उस-उस प्रकारसे उन-रन कर्मोंका आस्रव और वन्ध कराते है। जो क्रिया प्रधान होतो है उससे उस कर्मका बन्ध विशेषरूपसे होता है, शेष कर्मोका गौण । परभवमें शरीरादिको प्राप्तिके लिए आयु कर्मका आम्रव वर्तमान आयुके त्रिभागमें होता है । शेप मात कर्मोका आस्रव प्रतिममय होता रहता है। ४. मोक्षतत्त्व : बन्धन-मुक्तिको मोक्ष कहते है । बन्धके कारणोंका अभाव होनेपर तथा संचित कर्मोकी निर्जरा होनेसे ममस्त कर्मोका समूल उच्छेद होना मोक्ष है। आत्माकी वैभाविकी शक्तिका मंगार अवस्थामे विभाव परिणमन होता है। विभाव परिणमनके निमित्त हट जानेसे मोक्ष दशामें उमका स्वाभाविक परिणमन हो जाता है । जो आत्माके गुण विकृत हो रहे थे वे ही स्वाभाविक दशामें आ जाते है। मिथ्यादर्शन सम्यग्दर्शन बन जाता है, अज्ञान ज्ञान बन जाता है और अचारित्र चारित्र । इस दशामें आत्माका सारा नकशा ही बदल जाता है । जो आत्मा अनादि कालसे मिथ्यादर्शन आदि अशुद्धियों और कलुषताओंका पुञ्ज बना हुआ था, वही निर्मल, निश्चल और अनन्त चैतन्यमय हो जाता है। उसका आगे सदा शुद्ध परिणमन ही होता है। वह निस्तरंग समुद्रको तरह निर्विकल्प, निश्चिल और निर्मल हो जाता है । न तो निर्वाण दशामें आत्माका अभाव होता है और न वह अचेतन ही हो जाता है। जब आत्मा एक स्वतन्त्र मौलिक द्रव्य है, तब उसके अभावकी या उसके गुणोंके उच्छेदकी कल्पना ही नहीं की जा सकती। प्रतिक्षण कितने ही परिवर्तन होते जाय, पर विश्वके रंगमञ्चसे उसका समूल उच्छेद नहीं हो सकता।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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