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________________ २३० जैनदर्शन स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये नव नोकषायें है। इनके कारण भी आत्मामें विकारपरिणति उत्पन्न होती है । अतः ये भी आस्रव है। योग: मन, वचन और कायके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंमे जो परिस्पन्द अर्थात् क्रिया होती है उसे 'योग' कहते है। योगकी साधारण प्रसिद्धि योगभाष्य आदिमें यद्यपि चित्तवृत्ति के निरोधरूप ध्यानके अर्थमे है, परन्तु जैन परम्परामें चूंकि मन, वचन और कायसे होनेवाली आत्माकी क्रिया कर्मपरमाणुओंसे आत्माका योग अर्थात् सम्बन्ध कराती है, इसलिए इसे ही योग कहते है और इसके निरोधको ध्यान कहते है । आत्मा सक्रिय है, उसके प्रदेशोंमे परिस्पन्द होता है। मन, वचन और कायके निमित्तसे सदा उसमें क्रिया होती रहती है। यह क्रिया जीवन्मुक्तके भी वराबर होती है। परममुक्तिसे कुछ समय पहले अयोगकेवली अवस्थामे मन, वचन और कायको क्रियाका निरोध होता है, और तब आत्मा निर्मल और निश्चल बन जाता है । सिद्ध अवस्थामें आत्माके पूर्ण शुद्ध रूपका आवि र्भाव होता है । न तो उसमें कर्मजन्य मलिनता ही रहती है और न योगकी चंचलता ही। सच पूछा जाय तो योग ही आस्रव है। इसीके द्वारा कर्मोंका आगमन होता है । शुभ योग पुण्यकर्मका आस्रव कराता है और अशुभयोग पापकर्मका। सबका शुभ चिन्तन यानी अहिंसक विचारधारा शुभ मनोयोग है । हित, मित, प्रिय वचन बोलना शुभ वचनयोग है और परको बाधा न देनेवाली यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति शुभकाय योग है। और इनसे विपरीत चिन्तन, वचन तथा काय-प्रवृत्ति अशुभ मन-वचन-काययोग है। दो आस्रव : सामान्यतया आस्रव दो प्रकारका होता है। एक तो कषायानुरंजित योगसे होनेवाला साम्परायिक आस्रव-जो बन्धका हेतु होकर संसारको वृद्धि करता है। दूसरा मात्र योगसे होनेवाला ईर्यापथ आस्रव-जो कषाय
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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