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________________ २२२ जैनदर्शन को वर्णभेदकी चक्कीमें पोसनेवाले तथोक्त उच्चाभिमानियोंको झकझोरकर एक बार रुककर सोचनेका शीतल वातावरण उपस्थित कर सके । उनने अपने त्याग और तपस्याके साधक जीवनसे महत्ताका मापदण्ड ही बदल दिया और उन समस्त त्रासित शोषित अभिद्रावित और पीड़ित मनुष्यतनधारियोंको आत्मवत् समझ धर्मके क्षेत्रमें समानरूपसे अवसर देनेवाले समवसरणको रचना की। तात्पर्य यह कि अहिंसाकी विविध प्रकारकी साधनाओंके लिए आत्माके स्वरूप और उसके मूल अधिकारमर्यादाका ज्ञान उतना ही आवश्यक है जितना कि परपदार्थोसे विवेक प्राप्त करनेके लिए 'पर' पुद्गलका ज्ञान । बिना इन दोनोंका वास्तविक ज्ञान हुए सम्यग्दर्शनकी वह अमरज्योति नहीं जल सकती, जिसके प्रकाशमें मानवता मुसकुराती है और सर्वात्मसमताका उदय होता है। इस आत्मसमानाधिकारका ज्ञान और उसको जीवनमें उतारनेको दृढनिष्टा ही सर्वोदयको भूमिका हो सकती है। अतः वैयक्तिक दुःखकी निवृत्ति तथा जगतमें शान्ति स्थापित करनेके लिए जिन व्यक्तियोंसे यह जगत बना है उन व्यक्तियोंके स्वरूप और अधिकारकी सीमाको हमें समझना ही होगा। हम उसकी तरफसे आँख मूंदकर तात्कालिक करुणा या दयाके आँसू बहा भी लें पर उसका स्थायी इलाज नहीं कर सकते । अतः भगवान् महावीरने बन्धनमुक्तिके लिये जो 'बंधा है तथा जिससे बंधा है' इन दोनों तत्त्वोंका परिज्ञान आवश्यक बताया। बिना इसके बन्धपरम्पराके समूलोच्छेद करनेका सङ्कल्प ही नहीं हो सकता और न चारित्रके प्रति उत्साह ही हो सकता है । चारित्रकी प्रेरणा तो विचारोंसे ही मिलती है। २. अजीवतत्त्व : जिस प्रकार आत्मतत्त्वका ज्ञान आवश्यक है, उसी प्रकार जिस अजीवके सम्बन्धसे आत्मा विकृत होता है, उसमें विभावपरिणति होती है
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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