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________________ आत्मतत्त्व-निरूपण २२१ अपने जीवनको प्रिय समझते हैं, सुख चाहते हैं, दु:खसे घबड़ाते हैं उसी तरह अन्य आत्माएँ भी यही चाहती है । यही हमारी आत्मा अनादिकालसे सूक्ष्म निगोद, वृक्ष, वनस्पति, कोड़ा, मकोड़ा, पशु, पक्षी आदि अनेक शरीरोंको धारण करती रही है और न जाने इसे कौन-कौन शरीर धारण करना पड़ेंगें । मनुष्योंमें जिन्हें हम नीच, अछूत आदि कहकर दुरदुराते हैं और अपनी स्वार्थपूर्ण सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्थाओ और बन्धनोंसे उन समानाधिकारी मनुष्यों के अधिकारोंका निर्दलन करके उनके विकासको रोकते हैं, उन नीच और अछूतोंमें भी हम उत्पन्न हुए होंगें । आज मनमें दूसरोंके प्रति उन्हीं कुत्सित भावोंको जाग्रत करके उस परिस्थितिका निर्माण अवश्य ही कर रहे है जिससे हमारी उन्हींमें उत्पन्न होने की ही अधिक सम्भावना । उन सूक्ष्म निगोदसे लेकर मनुष्यों तक हमारे सीधे सम्पर्क में आनेवाले प्राणियोंके मूलभूत स्वरूप और अधिकारको समझे बिना हम उनपर करुणा, दया आदिके भाव ही नहीं ला सकते, और न समानाधिकारमूलक परम अहिंसा के भाव ही जाग्रत कर सकते है । चित्तमें जब उन समस्त प्राणियों में आत्मौपम्यकी पुण्य भावना लहर मारती है तभी हमारा प्रत्येक उच्छ्वास उनकी मंगलकामनासे भरा हुआ निकलता है और इस पवित्र धर्मको नहीं समझनेवाले संघर्षशील हिंसकोंके शोषण और निदर्लनसे पिसती हुई आत्माके उद्धारकी छटपटाहट उत्पन्न हो सकती है । इस तत्त्वज्ञानकी सुवाससे ही हमारी परिणति परपदार्थोंके संग्रह और परिग्रहको दुष्प्रवृत्तिसे हटकर लोककल्याण और जीवसेवाकी ओर झुकती है । अत: अहिंसाकी सर्वभूतमैत्रीकी उत्कृष्ट साधना के लिए सर्वभूतोंके स्वरूप और अधिकारका ज्ञान तो पहले चाहिये ही । न केवल ज्ञान ही, किन्तु चाहिये उसके प्रति दृढ़निष्ठा । इस सर्वात्मसमत्वकी मूलज्योति महावीर बननेवाले क्षत्रियराजकुमार वर्धमानके मन में जगी थी और तभी वे प्राप्त राजविभूतिको बन्धन मानकर बाहर-भीतरकी सभी गाँठे खोलकर परमनिर्ग्रन्थ बने और जगतमें मानवता
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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