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________________ २११ आत्मतत्त्व-निरूपण उन विचारोंके उत्तेजक पुद्गल आत्माके वासनामय सूक्ष्म कर्मशरीरमें शामिल होते जाते है । जब जब उन कर्मपुद्गलोंपर दबाव पड़ता है तब तब वे फिर रागादि भावोंको जगाते है। फिर नये कर्मपुद्गल आते हैं और उन कर्मपुद्गलोंके परिपाकके अनुसार नूतन रागादि भावोंकी सृष्टि होती है । इस तरह रागादि भाव और कर्मपुद्गलोंके सम्बन्धका चक्र तब तक बराबर चालू रहता है, जब तक कि अपने विवेक और चारित्रसे रागादि भावोंको नष्ट नहीं कर दिया जाता। सारांश यह कि जीवको ये राग-द्वेपादि वासनाएँ और पुद्गलकर्मबन्धकी धारा बीज-वृक्षसन्ततिकी तरह अनादिसे चालू है । पूर्व संचित कर्मके उदयसे इस समय राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते है और तत्कालमें जो जीवकी आसक्ति या लगन होती है, वही नूतन कर्मबन्ध कराती है। यह आशंका करना कि 'जब पूर्वकमसे रागादि और रागादिसे नये कर्मका बन्ध होता है तब इस चक्रका उच्छेद कैसे हो सकता है ?' उचित नहीं है; कारण यह है कि केवल पूर्वकर्मके फलका भोगना ही नये कर्मका बन्धक नहीं होता, किन्तु उस भोगकालमें जो नूतन रागादि भाव उत्पन्न होते हैं, उनसे बन्ध होता है । यही कारण है कि सम्यग्दृष्टिके पूर्वकर्मके भोग नूतन रागादिभावोंको नहीं करनेकी वजहसे निर्जराके कारण होते है जब कि मिथ्यादृष्टि नूतन रागादिसे बंध ही बंध करता है । सम्यग्दृष्टि पूर्वकर्मके उदयसे होनेवाले रादिभावोंको अपने विवेकसे शान्त करता है और उनमें नई आसक्ति नहीं होने देता। यही कारण है कि उसके पुराने कर्म अपना फल देकर झड़ जाते है और किसी नये कर्मका उनकी जगह बन्ध नहीं होता । अतः सम्यग्दृष्टि तो हर तरफसे हलका हो चलता है; जब कि मिथ्यादृष्टि नित नयी वासना और आसक्तिके कारण तेजीसे कर्मबन्धनोंमें जकड़ता जाता है। जिस प्रकार हमारे भौतिक मस्तिष्कपर अनुभवोंकी सोधी, टेढ़ी, गहरी, उथली आदि असंख्य रेखाएँ पड़ती रहती है, जब एक प्रबल रेखा
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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