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________________ २१० जैनदर्शन व्यवहारसे जीव मूर्तिक भी है : ___ जैन दर्शनमें व्यवहारनयसे जीवको मूर्तिक माननेका अर्थ है कि अनादिसे यह जीव शरीरसम्बद्ध ही मिलता आया है । स्थूल शरीर छोड़ने पर भी मूक्ष्म कर्मशरीर सदा इसके साथ रहता है। इसी सूक्ष्म कर्मशरोरके नाशको ही मुक्ति कहते है। चार्वाकका देहात्मवाद देहके साथ ही आत्माकी समाप्ति मानता है जव कि जैनके देहपरिमाण-आत्मवादमें आत्माको स्वतन्त्र सत्ता होकर भी उसका विकास अशद्ध दशामें देहाश्रित यानी देहनिमित्तिक माना गया है । आत्माकी दशा : ___आजका विज्ञान हमे बताता है कि जीव जो भी विचार करता है उसकी टेढ़ी-सीधी; और उथली-गहरी रेखायें मस्तिष्कमे भरे हुए मक्खन जैसे श्वेत पदार्थमें खिंचती जाती है, और उन्हींके अनुसार स्मृति तथा चासनाएँ उद्बुद्ध होती है । जैसे अग्निसे तपे हुए लोहेके गोलेको पानीमें छोड़ने पर वह गोला जलके बहुतसे परमाणुओंको अपने भीतर सोख लेता हैं और भाफ बनाकर कुछ परमाणुओंको बाहर निकालता है। जब तक वह गर्म रहता है, पानीमें उथल-पुथल पैदा करता है। कुछ परमाणुओंको लेता है, कुछको निकालता है, कुछको भाफ बनाता, यानी एक अजीब ही परिस्थिति आस-पासके वातावरणमें उपस्थित कर देता है। उसी तरह जब यह आत्मा राग-द्वेप आदिसे उत्तप्त होता है, तब शरीरमें एक अद्भुत हलन-चलन उत्पन्न करता है। क्रोध आते ही आँखें लाल हो जाती हैं, खूनको गति बढ़ जाती है, मुँह सूखने लगता है, और नथने फड़कने लगते है । जब कामवासना जागृत होती है तो सारे शरीरमें एक विशेष प्रकार का मन्थन शुरू होता है, और जब तक वह कपाय या वासना शान्त नहीं हो लेती; तब तक यह चहल-पहल और मन्थन आदि नहीं रुकता। आत्माके विचारोंके अनुसार पुद्गलद्रव्योंमें भी परिणमन होता है और
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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