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________________ १७० जैनदर्शन सामान्य नियम है कि 'जहाँ स्पर्श होगा वहाँ रूप, रस और गन्ध अवश्य ही होंगे।' इसी तरह जिन दो पदार्थोका एक-दूसरेके रूपसे परिणमन हो जाता है वे दोनों पृथक् जातीय द्रव्य नहीं हो सकते । इमोलिए आजके विज्ञानको अपने प्रयोगोंसे उगी एकजातिक अणुवादपर आना पड़ा है । प्रकाश और गर्मी भी शक्तियाँ नहीं : यद्यपि विज्ञान प्रकाग, गर्मी और गव्दको अभी केवल ( Incrgy ) गक्ति मानता है । पर, वह शक्ति निराधार न होकर किसी-न-किमी ठोस आधारमे रहने वाली ही गिद्ध होगी; क्योकि गक्ति या गुण निराश्रय नहीं रह सकते। उन्हे किगी-न-किगी मौलिक द्रव्यके आश्रयमे रहना ही होगा । ये शक्तियाँ जिन माध्यमोसे गति करती है, उन माध्यमोंको स्वयं उमरूपसे परिणत कराती हुई हो जाती है । अतः यह प्रश्न मनमे उठता है कि जिसे हम शक्तिकी गति कहते है वह आकागमे निरन्तर प्रचित परमाणुओंमे अविगम गतिसे उत्पन्न होनेवाली शक्तिपरंपरा ही तो नहीं है ? हम पहले बता आये है कि शब्द, गर्मी और प्रकाश किसी निश्चित दिशाको गति भी कर सकते है और समीपके वातावरणको शव्दायमान, प्रकाशमान और गरम भी कर देते है। यों तो जब प्रत्येक परमाणु गतिशील है और उत्पाद-व्ययस्वभावके कारण प्रतिक्षण नूतन पर्यायोंको धारण कर रहा है, तव शब्द, प्रकाश और गर्मीका इन्हीं परमाणुओंकी पर्याय माननेमे ही वस्तुस्वरूपका संरक्षण रह पाता है। ___ जैन ग्रन्थोंमे पुद्गल द्रव्योंकी जिन-कर्मवर्गणा, नोकर्मवर्गणा, आहारवर्गणा, भाषावर्गणा आदि रूपसे-२३ प्रकारको वर्गणाओंका वर्णन मिलता है, वे स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। एक ही पुद्गलजातीय स्कन्धोंमे ये विभिन्न प्रकारके परिणमन, विभिन्न सामग्रीके अनुसार विभिन्न परिस्थितियों में बन जाते है। यह नहीं है कि जो परमाणु एक वार कर्मवर्गणारूप हुए है; १. देखो, गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५९३-९४ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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