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________________ १२२ जैनदर्शन भौतिकवादी प्रणाली कोई प्राभाविक उपाय नहीं है । जब मनुष्य यह सोचता है कि मेरा अस्तित्व शरीरके साथ ही समाप्त होनेवाला है, तो वह भोगविलास आदिको वृत्तिसे विरक्त होकर क्यों राष्ट्रनिर्माण और समाजवादी व्यवस्थाकी ओर झुकेगा ? चेतन आत्माओंके स्वतन्त्र अस्तित्व और व्यक्तित्व स्वीकार कर लेनेपर तथा उनमें प्रतिक्षण स्वाभाविक परिवर्तनकी योग्यता मान लेनेपर तो अनुकूल विकासका अनन्त क्षेत्र सामने उपस्थित हो जाता है, जिसमें मनुष्य अपने समग्र पुरुषार्थका, खुलकर उपयोग कर सकता है । यदि मनुष्योंको केवल भौतिक माना जाता है, तो भूसजन्य वर्ण और” वंश आदिकी श्रेष्ठता और कनिष्ठताका प्रश्न सीधा सामने आता है । किन्तु इस भूतजन्य वंश, रंग आदिके स्थूल भेदोंकी ओर दृष्टि न कर जब समस्त मनुष्य-आत्माओंका मूलतः समान अधिकार और स्वतन्त्र व्यक्तित्व माना जाता है, तो ही सहयोगमूलक समाज-व्यवस्थाके के लिए उपयुक्त भूमिका प्रस्तुत होती है । समाजव्यवस्थाका आधार समता : जैनदर्शनने प्रत्येक जड़-चेतन तत्त्वका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व माना है । मूलतः एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यपर कोई अधिकार नहीं हैं। सब अपनेअपने परिणामी स्वभावके अनुसार प्रतिक्षण परिवर्तित होते जा रहे हैं । जब इस प्रकारको स्वाभाविक समभूमिका द्रव्योंकी स्वीकृत है, तब यह अनधिकार चेष्टासे इकट्ठे किये गये परिग्रहके संग्रहसे प्राप्त विषमता, अपने आप अस्वाभाविक और अप्राकृतिक सिद्ध होती जाती है। यदि प्रतिबुद्ध मानव-समाज समान अधिकारके आधारपर अपने व्यवहारके लिए सर्वोदयको दृष्टिसे कोई भी व्यवस्थाका निर्माण करते हैं तो वह उनकी सहजसिद्ध प्रवृत्ति ही मानी जानी चाहिए। एक ईश्वरको जगन्नियन्ता मानकर उसके आदेश या पैगामके नामपर किसी जातिकी उच्चता और विशेषाधिकार तथा पवित्रताका ढिंढोरा पीटना और उसके द्वारा जगतमें वर्ग
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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