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________________ लोकव्यवस्था १२१ यह तो निश्चित है कि-भौतिकवादने जोवसृष्टिकी परम्परा करोड़ों वर्ष पूर्वसे स्वीकार की है और आज जो नया जीव विकसित होता है, वह किसी पुराने जीवित सेलको केन्द्र बनाकर ही। ऐसी दशामें यह अनुमान कि 'किसी समय जड़ पृथ्वी तरल रही होगी, फिर उसमें घनत्व आया और अमीवा आदि उत्पन्न हुए' केवल कल्पना ही मालूम होती है । जो हो, व्यवहारमें भौतिकवाद भी मनुष्य या प्राणिसृष्टिको प्रकृितिको सर्वोत्तम सृष्टि मानता है, और उनका पृथक्-पृथक् अस्तित्व भी स्वीकार करता है । विचारणीय बात इतनी ही है कि एक ही तत्त्व परस्पर विरुद्ध चेतन और अचेतन दोनों रूपसे परिणमन कर सकता है क्या ? एक ओर तो ये जड़वादी हैं जो जड़का ही परिणमन चेतनरूपसे मानते हैं, तो दूसरी ओर एक ब्रह्मवाद तो इससे भी अधिक काल्पनिक है, जो चेतनका ही जड़रूपसे परिणमन मानता है। जड़वादमें परिवर्तनका प्रकार, अनन्त जड़ोंका स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार करनेसे बन जाता है। इसमें केवल एक ही प्रश्न शेष रहता है कि क्या जड़ भी चेतन बन सकता है ? पर इस अद्वैत चेतनवादमें तो परिवर्तन भी असत्य है, अनेकत्व भी असत्य है, और जड़ चेतनका भेद भी असत्य है । एक किसी अनिर्वचनीय मायाके कारण एक ही ब्रह्म जड़-चेतन नानारूपसे प्रतिभासित होने लगता है । जड़वादके सामान्य सिद्धान्तोंका परीक्षण विज्ञानकी प्रयोगशालामें किया जा सकता है और उसको तथ्यता सिद्ध की जा सकती है। पर इस ब्रह्मवादके लिए तो सिवाय विश्वासके कोई प्रबल युक्तिबल भी प्राप्त नहीं है। विभिन्न मनुष्यों में जन्मसे ही विभिन्न रुझान और बुद्धिका कविता, संगीत और कलाके आदि विविध क्षेत्रोंमें विकास आकस्मिक नहीं हो सकता । इसका कोई ठोस और सत्य कारण अवश्य होना ही चाहिए। समाजव्यवस्थाके लिए जड़वादकी अनुपयोगिता : जिस सहयोगात्मक समाजव्यवस्थाके लिए भौतिकवाद मनुष्यका संसार गर्भसे मरण तक ही मानना चाहता है, उस व्यवस्थाके लिए यह
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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