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________________ १ भारतीय दर्शनको जैनदर्शनकी देन ६५ दार्शनिक युगमें द्रव्यत्वादि सामान्योंकी तरह व्यवहारकल्पित ब्राह्मणत्वादि जातियों का भी उन्हे नित्य, एक और अनेकानुगत मानकर जो समर्थन किया गया है और उनकी अभिव्यक्ति ब्राह्मर्णादि माता-पितासे उत्पन्न होनेके कारण जो बतायी गयी है उनका खण्डन जैन और बौद्धदर्शनके ग्रन्थोंमें प्रचुरतासे पाया जाता है । इनका सीधा सिद्धान्त है कि मनुष्यों में जब मनुष्यत्व नामक सामान्य हो सादृश्यमूलक है तब ब्राह्मणत्वादि जातियाँ भी सदृश आधार और व्यवहारमूलक ही बन सकतीं है । जिनमें अहिंसा, दया आदि सद्व्रतोंके संस्कार विकसित हों वे ब्राह्मण, पररक्षाकी वृत्तिवाले क्षत्रिय, कृषिवाणिज्यादि व्यापारप्रधान वैश्य और शिल्पमेवा आदिसे आजीविका चलानेवाने शूद्र है । कोई भी शूद्र अपनेमें व्रत आदि सद्गुणोंका विकास करके ब्राह्मण वन सकता है । ब्राह्मणत्वका आधार व्रतसंस्कार है न कि नित्य ब्राह्मणत्व जाति । ૨ जैनदर्शनने जहाँ पदार्थ - विज्ञानके क्षेत्रमे अपनी मौलिक दृष्टि रखी है बहाँ समाज-रचना और विश्वशांतिके मूलभूत सिद्धान्तोंका भी विवेचन किया है । उनमें निरीश्वरवाद और वर्ण-व्यवस्थाको व्यवहारकल्पित मानना ये दो प्रमुख है । यह ठीक है कि कुछ संस्कार बंगानुगत होते है, किन्तु उन्हें समाजरचनाका आधार नहीं बनाया जा सकता । सामाजिक और सार्वजनिक साधनोंके विशिष्ट संरक्षणके लिए वर्णव्यवस्थाकी दुहाई नहीं दी जा सकती । सार्वजनिक विकासके अवसर प्रत्येकके लिये समानरूपसे मिलने पर स्वस्थ समाजका निर्माण हो सकता है । अनुभवकी प्रमाणता : धर्मज्ञ और सर्वज्ञके प्रकरणमें लिखा जा चुका है कि श्रमण परम्परामें १. देखो, प्रमाणवातिकालंकार पृ० २२ । तत्त्वसंग्रह का० ३५७९ । प्रमेयकमलमा० पृ० ४८३ । न्यायकुमु० पृ० ७७० । सम्मति० टी० पृ०६९७| स्या० रत्ना०९५९ । २. 'ब्राह्मणाः व्रतसंस्कारात् - आदिपुराण ३८।४६ । ५
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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