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________________ जैनदर्शन मण और क्षय भी स्वयं ही किया जा सकता है। यानी पुरुष अपने कर्मोंका एक बार कर्ता होकर भी उनकी रेखाओंको अपने पुरुषार्थसे मिटा भी सकता है । द्रव्योंकी स्वाभावभूत योग्यताएँ, उनके प्रतिक्षण परिणमन करनेकी प्रवृत्ति और परस्पर प्रभावित होनेकी लचक इन तीन कारणोंसे विश्वका समस्त व्यवहार चलता जा रहा है । कर्मणा वर्णव्यवस्था ः व्यवहारके लिए गुण-कर्मके अनुसार वर्ण-व्यवस्था की गयी थी, जिससे समाज-रचनामें असुविधा न हो। किन्तु वर्गस्वाथियोंने ईश्वर के साथ उसका भी सम्बन्ध जोड़ दिया और जुड़ना भी चाहिये था; क्योंकि जब ईश्वर जगतका नियंता है तो जगतके अन्तर्गत वर्ण-व्यवस्था उसके नियंत्रणसे परे कैसे रह सकती है ? ईश्वरका सहारा लेकर इस वर्ण-व्यवस्थाको ईश्वरीय रूप दिया गया और कहा गया कि ब्राह्मण ईश्वरके मुखसे, क्षत्रिय उसकी बाहुओंसे, वैश्य उदरसे और शूद्र पैरोंसे उत्पन्न हुए । उनके अधिकार भी जुदे-जुदे हैं और कर्तव्य भी । अनेक जन्मसिद्ध संरक्षणोंका समर्थन भी ईश्वरके नामपर किया गया है। इसका यह परिणाम हुआ कि भारतवर्षमें वर्गस्वार्थोके आधारसे अनेक प्रकारकी विषमताओंकी सृष्टि हुई। करोड़ों मानव दास, अन्त्यज और शद्रके नामोंसे वंशपरम्परागत निर्दलन और उत्पीड़नके शिकार हुए। शूद्र धर्माधिकारसे भी वंचित किये गये। इस वर्णधर्मके संरक्षणके कारण ही ईश्वरको मर्यादापुरूषोत्तम कहा गया । यानी जो व्यवस्था लौकिक-व्यवहार और समाज-रचनाके लिए की गयी थी और जिसमें युगानुसार परिवर्तनकी शक्यता थी वह धर्म और ईश्वरके नामसे बद्धमूल हो गयी। ___ जैनधर्ममें मानवमात्रको व्यक्तिस्वातन्त्र्यके परम सिद्धान्तके अनुसार सामान धर्माधिकार तो दिया ही । साथ-ही-साथ इस व्यावहारिक वर्णव्यवस्थाको समाजव्यवहार तक गुण-कर्मके अनुसार ही सीमित रखा।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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