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________________ सूक्ति-सुधा] [.३७ (१७) पडिक्कमणेणं वय छिद्दाणि पिहेह। उ० २९, ११ वा , ग०, - टीका-प्रतिक्रमण करने से-कृत अपरावो की , आलोचना करने से-ग्रहित व्रतो में उत्पन्न दोपो का प्रायश्चित्त करने से व्रतों के दोष और ग्रहित नियमों के दोष ढक जाते है, और इस प्रकार व्रत-नियम निर्दोष हो जाते हैं। काउस्लमोणं तीय पहुप्यन्नं, पायच्छित्तं विसोहेइ। उ०,२९, १२वां, ग. टीका-कायोत्सर्ग करने से, ध्यान करने से, प्रवृत्तियो को रोक कर-मानसिक-स्थिति को एकाग्र कर चिन्तन-मनन करने से, भूतकाल और वर्तमान काल के अतिचारो की विशुद्धि होती है तथा भविष्य में दोष लगने की संभावना से आत्मा वच जाती है । पच्चक्खाणेणं श्रासव दाराई निरुम्भइ । उ० २९, १३ वाँ, ग०, . टीका-प्रत्याख्यान करने से, त्याग करने से, वस्तुओ के भोगउपभोग की मर्यादा करने से, आश्रव के द्वारो का निरोध होता है। इस प्रकार नये कर्म आते हुए रुकते है । इस रीति से संसार-समुद्र के किनारे की ओर बढते है और मोक्ष के नजदीक जाते है। (२०) पायच्छित्त करणेणं पावकम्म, विसोहिं जणयह । उ०, २९, १६ वा, ग०
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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