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________________ ३६ ] ( १३ ) समाहि कामे समणे तवस्सी । उ०, ३२,,४, टीका --- साधु को - आत्मार्थी को यदि समाधि की इच्छा है, राग-द्वेष को क्षय करने की इच्छा है, तो तपशील बने इन्द्रियो के ऊपर सयम रक्खे, और अनासक्त जीवन व्यतीत करे । निरन्तर परसेवा में ही काल व्यतीत करता रहे । ( १४ ) असिधारा गमणं चेव, दुक्करं चरिउँ तयो ।' उ०, १९, ३८ ( १५ ) दुविहे सामाइए, [ तप-सूत्र + G टीका -- कष्ट साध्य परन्तु सुन्दर परिणाम वाले तंप का तथा सेवा और सयम का आचरण करना तलवार की धार पर चलने के समान दुष्कर है । ( १६ ) सामाइएणं सावज्ज जोग बिरहूं जणयइ । श्रगार सामाइए, अणगार सामाइए । ठाणा०, २ राठा, उ, ३, ६ टीका -- सामायिक दो प्रकार की कहीं गई है - १ आगारिक सामायिक और २ अणागारिक सामायिक । मर्यादित समय की, गृहस्थो द्वारा की जाने वाली सामायिक आगारिक है और जीवन-पर्यंत के लिये ग्रहण की जाने वाली - साधुओ की सामायिक अणागारिक है उ०, '२९, ८, बी, ग० • टीका - सामायिक व्रत से सावद्य-योग की निवृत्ति से मन, वचन और काया को पापकारी प्रवृत्ति का निरोध होता है । सावद्य योग से विरति पैदा होकर निरवद्य योग मे प्रवृत्ति होती है ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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