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________________ सूक्ति-सुधा ] [ १७ दुर्लभ है । अतएव प्रमाद से सदैव सावधान रहना चाहिये और मन, वचन तथा काया को धर्म - मार्ग मे प्रवृत्त करना चाहिये । ( ८ ) दुलहाओ तहच्चाओ । सू०, १५, १८ टीका — सम्यग् दर्शन की प्राप्ति के अनुरूप हृदय के शुद्ध परिणाम होना, निर्दोष अन्त. करण का होना अत्यन्त कठिन है । शुभ कर्मों का उदय होने पर ही सम्यग् दर्शन के अनुसार हृदय में सरलता, प्रशस्यता, शुभ ध्यान और शुभ- लेश्या पैदा हो सकती है । ( ९ ) श्रयरिअत्तं पुरावि दुल्लहं । उ०, १०, १६ टीका - यदि दैवयोग से मनुष्य शरीर मिल जाय, तो भी आर्यधर्म की व अहिसा प्रधान धर्म की प्राप्ति होना तो बहुत ही दुर्लभ हैं, इसलिए क्षण - मात्र का भी प्रमाद नहीं करना चाहिये । - - ( १० ) लभेयं समुस्सए । सू०, १५, १७ टीका -- मनुष्यभव प्राप्त करना बहुत ही कठिन है, इसलिये इससे जितना भी फायदा उठाया जा सके, उतना उठा लेना चाहिये t अन्यथा पछताना होगा | ( ११ ) .. अहीरा पंचेंदियया हु दुल्लहा । उ०, १०, १७ टीका- पाचो इद्रियां सर्वाङ्ग सुन्दर और स्वस्थ मिलना अत्यन्त दुर्लभ है, इसलिये क्षणमात्र का भी प्रमाद नही करना चाहिये । २
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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