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________________ ४६६ [व्याख्या कोष १) सलेखना के जीवन मे न ता इस लोक सवधी सुख-धन, राज्य और ऋद्धि की कामना करे। (२) और न परलाक सवधी देवता आदि से सबधित, सुख की भावना करे। . ( ३ ) यश आदि के लिये विशेष जीवित रहने की भावना भी नही रखें। , (४) सलेखना से जनित कष्ट उपसर्ग आदि से छुटकारा पाने के लिये शीघ्र मृत्यु की कामना भी नही करे । (५) मेरी संलेखना तपस्या सच्ची हो तो मुझे आगे पाचो इन्द्रियो के । भोगो की और सुख की प्रप्ति होवे ऐसा नियाणा मा नहीं करे । २४-सवर भाते हुए नवीन कर्म को रोकने वाले आत्मा के परिणाम को "भावखवर" कहते है और कर्म-पुद्गलो की रुकावट को "द्रव्य संवर" कहते है ! - सवर के सत्तावन भेद कहे गये है। वे इस प्रकार है: पाच समिति, तीन गुप्ति, वाइस परिपह, दस प्रकार का यति धर्म, वारह भावना, और पाच प्रकार का चारित्र, इस प्रकार ५७ भेद है। २५-सवेग सासारिक भोग, सुख-सामग्री के प्रति उनके घातक परिणामो पर विश्वास करते हुए मोक्ष की मभिलापा रखना "सवेग" है । २६-सस्कृति देशगत, अथवा जाति गत, अथ्वा वर्म गत सपूर्ण व्यवहार, विचार, जीवन-प्रणा जीवन-प्रणालि, और सभी प्रकार की प्रवृत्तियो का सम्मिलित नाम ही . और व्यवहार, विचार, "संस्कृति" है। जैसे कि भारतीय सस्कृति, जैन सस्कृति आदि । २७-स्थविर ' दार्घ कालीन दीक्षित एव वृद्ध, अनुभवी और योग्य साघु "स्थविर" कहलाते है ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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