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________________ । सूक्ति-सुधा ] [ २८१ टीका-चार प्रकार के श्रावक कहे गये है।-- (१) बिना किसी बदले की भावना के विशुद्ध हृदय से "साधुसाध्विथो के लिये सुसमाधि रहे "-ऐसी हितकारी व्यवस्था करने वाला श्रावक माता-पिता समान श्रावक है। (२) साधु-साध्वियो को प्रमादी देख कर ऊपर से क्रोध करे, किन्तु मन मे हित की भावना ही रक्ख-ऐसा श्रावक भाई समान श्रावक है। (३) साधु-साध्वियो के दोषो को ढक कर, दोषो की उपेक्षा कर केवल गुणो की तरफ ही लक्ष्य देने वाला श्रावक मित्र समान श्रावक है। (४) जो श्रावक साधु-साध्वियो के गुणो को तो नही देखता है, किन्तु दोष ही दोप देखता है, ऐसा श्रावक शत्रु-श्रावक है। (३६ ) चत्तारि सूरा, खंति सूरे, तवसरे, दाणासुरे, जुद्धसरे । ढाणा०, ४था, ठा, उ, ३, ७ टीका-चार प्रकार के शूरवीर-माने गये हैं -१ क्षमा-शूर, 'कठिनाइयो में और विकट एव प्रतिकूल परिस्थिति में भी घोर क्षमा रखने वाले क्षमा-शूर है। २ तप-शर:-तपश्चर्या मे-एवं सेवा मे असाधारण वीरता रखने वाले तप-शूर है। ३ उदारता पूर्वक और अनासक्ति के साथ मुक्त हस्त होकर दान देने वाले महापुरुष दान-शूर है। ४ कायरता को भगाकर असाधारण साहस के साथ युद्ध करने वाले युद्ध-शूर होते है।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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