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________________ २७६ ] [ प्रकीर्णक-सूत्र 1 टीका - धर्मास्तिकाय का लक्षण, जीव और पुद्गल को गति देने मे --आवश्यकता पड़ने पर सहायक रूप होना है, जैसे जल मछली की चाल मे सहायक है । टीका - अधर्मास्तिकाय का लक्षण जीव और पुद्गल को “स्थिति” धारण करने के समय में सहायक रूप होना है । जैसेधूप मे थके हुए मुसाफिर के लिये वृक्ष की छाया है । ( २२ ) भायां सव्व दव्वानं, नहं ओगाह लक्खणं । उ० २८, ९ टीका - आकाश सभी द्रव्यो का भाजन है, सभी द्रव्यों के अवगाहन के लिये, यानी रहने के लिये स्थान देता है । छ ही द्रव्यो के रहने के लिये आकाश ही केवल एक आधार भूत द्रव्य है । ( २३ ) वित्तणा लक्खणो कालो । ( २१ ) अहम्मो ठाण लक्खणो । उ०,२८,९ 1 उ०, २८, १० टीका-काल वर्त्तना लक्षण वाला है, यानी नये को पुराना करना और पुराने को जीर्ण-शीर्ण करना ही, वस्तुओं के विनाश मे मदद पहुँचाना ही काल का लक्षण है । जैसे कि कैची और कपडे का सवध है | 1 1 ( २४ ) छक्काय. श्रहिया, णावरे कोइ विज्जई | - सू०, ११,८ -
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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