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________________ २२२] [कामादि-सूत्र (२९) अदक्खु कालाई रोगवं। मू०, २, २, उ, ३ टीका-जिन्होने निश्चय रूप से, अडोल हृदय से, काम-भोगों को साक्षात् रोग ल्प समझ लिया है, मैथुन को दु.खों का मूल-स्थान और मादि-कारण समझ लिया है, वे मुक्त-आत्मा के समान ही है, उन्हे शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त होगी, इसमे जरा भी सदेह नहीं है। (३०) विसन्ना विसयं गणाहि, दुहनोऽवि लोय अणु संचरंति । सू०, १२, १४ टीका-जो जीव विषयो मे अर्थात भोगो में और स्त्रियो में आसक्त है, जो विपयांव है, भोगांव है या कामांव है, वे वार वार स्थावर और त्रस-योनियो में जन्म लेते है, अनन्त जन्म मरण करते है, उनको संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करना पड़ेगा। विसएसण झियायति, . कंका वा कलसाहमा। मू० ११, २८ टीका-जो विषय-भोगो की प्राप्ति का ध्यान करते रहते है, वे ढक पक्षी की तरह पापी और अवम है । जैसे ढक आदि पक्षी सदैव मछली पकड़ने का ही ख्याल रखते है, वैसे ही मूढ़ जन भी सदैव विपय-पोषण और विकार सेवन का ही ख्याल रखते है। ऐसे प्राणी निश्चय ही नीच और दुष्ट है; तथा निरन्तर दुख के ही भागी है।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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