SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूक्ति-सुधा ] [ २२१ - टीका - जो पुरुष अथवा जो आत्माऐ इस मनुष्य-भव, अथव इस ससार मे आसक्त है, एव काम भोग में मूच्छित है, तथा हिसा आदि पापो से निवृत्त नही है, वे पुरुष मोहनीय-कर्म का सचय करते है | ( २६ ) गिद्ध नरा कामेसु मुच्छिया सू०, २, ८, उ, ३ ही काम भोग मे टीका - क्षुद्र मनुष्य प्रकृति के जीव ही विषयो मे आसक्त होकर स्थान को प्राप्त करते है । - मूच्छित होते है । लघु.. नरक आदि यातना - ( २७ ) वज्जए इत्थी विसलित्तं, व कंटगं नश्या । सू०, ४, ११, उ, १. टीका — जैसे विष-लिप्त काटा तत्काल निकाल कर फेक दिया जाता है, उसी प्रकार अनन्त जन्म-मरण को उत्पन्न करने वाले स्त्री रूप काटे को भी तत्काल छोड़ देना चाहिये । यानी पूर्ण ब्रह्मचर्य के साथ जीवन व्यतीत करना चाहिए। जीवन विकास के इच्छुक को सर्व-प्रथम ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना चाहिये । L ( २८ ) नो विहरे सह णमित्थीसु । सू०४, १२, उ, १ - टीका — आत्म-कल्याण की भावना वाला, स्व-पर-सेवा की इच्छा वाला, स्त्रियो के साथ विहार नही करे । स्त्रियो की संगति से सदैव दूर रहे |
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy