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________________ २१६ 1 [ कामादि-सूत्र पीडा पहुचाते रहते है। ये मधु-मिश्रित विष के समान है, जो कि मोगते समय तो मधुर दिखाई देते हैं, किन्तु परिणाम मे घोर दुख के देने वाले हैं। ये काम-भोगे, जिसके डाढ़ में जहर है ऐसे सर्प के समान है, जो कि देखने में तो सुन्दर है, किन्तु स्पर्श करते ही आत्मा मे महान् अनर्थ पैदा करने वाले है। (८) - दुप्परिच्चया इम कामा, नो सुजहा अधोर पुरिसेहिं । उ०, ८, ६ टीका-ये काम-विकार अत्यत कठिनाई से छूटते है, इसलिये अधीर पुरुषो से-निर्बल आत्माओ से ये विकार सरलता के साथ नही त्यागे जा सकते है। इनके लिये धैर्य और दृढ निश्चय की आवश्यकता है। कामा दुरतिवकमा। आ०, २, ९३, उ, ५ टीका-काम-भोगो की इच्छाऐ बहुत ही कठिनाई से जीती जाती है। बहुत ही सावधानी के साथ, ज्ञान-पूर्वक प्रयत्न करने पर ही इन पर विजय और नियन्त्रण किया जा सकता है। इसलिये कभी भी काम-इच्छा को जीतने के प्रति ढीलाई नही रखनी चाहिये। बल्कि हर क्षण इनके लिये जागृत और प्रयत्न शील रहना चाहिये। (१०) काम भोग रसगिद्धा, उपवज्जन्ति श्रासुरे काए । उ०, ८, १४, टीका-काम-भोगो मे मच्छित, इन्द्रिय-रसो मे आसक्त, विकार _ और वासनाओ मे मूढ आत्माऐ मर कर असुर कुमारो मे-हलकी जाति के देवो मे उत्पन्न होती है ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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