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________________ सूक्ति-सुधा ] [ १९७ टीका - अपने किये हुए कर्मों को भोगे बिना उनसे छुटकारा नही मिल सकता है । इसलिये पाप कर्मो को त्याग कर, पुण्य कर्मों का अर्थात् शुभ कर्मों का ही आचरण करना चाहिये । ( ५ ) कस्माणि बलवन्ति हि । उ०, २५, ३० टीका - कर्म ही बलवान् है । कर्मो के उदय होने पर वृद्धि और वल, धन और जन, सुख और सुविधा, कर्मानुसार हो जाते है | पुण्य कर्मों के उदय से अनुकूल सयोगो की प्राप्ति होती है और पापमय कर्मों के उदय से प्रतिकल सयोगो की प्राप्ति होती है । ( ६ ) कम्म च मोहप्प भवं । उ०, ३२, ७ टीका -- कर्म ही मोहको उत्पन्न करता है, यानी द्रव्य - आश्रव से भाव-आश्रव होता है, और भाव-आश्रव से द्रव्य आश्रव होता है । ( ७ ) गाढा य विवाग कम्मुणो । उ०, १०, ४, फल महान कटू होता है, इसलिये आश्रव को यानी प्रवृत्ति से बचना चाहिये । t टीका——कर्मों का त्रास कारी होता है, रोकना चाहिये । पाप บ ( ८ ) कम्मे हिं लुपति पाणिणो । सू० २, ४, उ १ भयंकर रूप से कर्म-द्वार को
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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