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________________ सूक्ति-सुधा [१५५. टीका-यौवन अवस्था मे ब्रह्मचर्य पूर्वक साधू-धर्म पालना अत्यन्त कठिन है। साधु-धर्म की पालना के प्रति अत्यन्त जागरूकता की आवश्यकता है। (३४) नातिवेल हसे मुणी। . . सू०, ९, २९ टीका--साधु मर्यादा को छोड़कर नही हँसे । मर्यादा का उल्लंघन करते हुए हँसना साधु और श्रावक दोनो के लिये सभी दृष्टियों से हानिकर है, अवांछनीय है। ( ३५ ) अकुसीले सया भिक्खू, गोव संसग्गिय भए । सू०, ९, २८ टीका-साधु स्वयं कुशील न वने, विपरीत मार्ग गामी न हो। किन्तु सदैव सच्चारित्र शील होकर वीतराग देव द्वारा कथित अहिंसा दया-मार्ग पर और सेवा-मार्ग पर ही चलता रहे । पूर्ण ब्रह्मचारी रहे। कुशील यानी दुराचारियो की सगति भी नही करे । सगतिका जीवन पर वहुत बड़ा असर हुआ करता है । अतएव सदैव सुशील पुरुषो की ही सगति करनी चाहिये । सुद्धे सिया जाए न दूसएज्जा। - सू०, १०, २३ टीका-निर्दोष आहार मिल जाने के वाद साधु आहार के स्वादिष्ट अथवा अस्वादिष्ट होने पर राग-द्वेप करके उसको अशद्ध नही वनावे । भावना द्वारा सदोप न कर दे । यानी स्वादिष्ट आहार के प्रति राग-भाव, मूर्छा-भाव नही लावे । इसी प्रकार नीरस आहार
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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