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________________ ३५२J [श्रमण-भिक्षु-सूत्र ( २३ ) अणुव कसे अप्पलीणे; मज्झेण मुणि जावए। सू०, १, २, उ, ४ टीका---साधु पुरुप, मुमक्ष पुरुष, किसी भी प्रकार की मद नही करता हुआ, विपय-वासना और विकार मे नही फसता हुआ, मध्यस्थ वृत्ति से यानी तटस्थ-वृत्ति से रहे । अनासक्त-वृत्ति से अपना जीवन ___ व्यतीत करता रहे। 3 . ( २४ ) - समयाए समणो होइ, वरभचेरेण वम्भणो। ___ उ०, २५, ३२ . ” टीका--समभाव रखने वाला हो, राग द्वेप से दूर रहने वाला ही, हर्ष-शोक तथा निंदा-स्तुति से दूर रहने वाला ही श्रमण है-साधु है। और जो ब्रह्मचर्य से युक्त है, वही वास्तव मे ब्राह्मण है । आन्तरिक गुणो के अभाव में वाह्य वेश और जाति-कुल कोई अर्थ नही उखते है। ( २५ ) पुढवि समे मुणी हविज्जा। द०, १०, १३ टीका-मुनि की वृत्ति पृथ्वी के समान सहन-शील होनी चाहिये। पृथ्वी पर जैसे सब प्रकार की मान-अपमान वाली क्रियाऐ की जाती है, मल-मूत्र आदि फेका जाता है, तो भी वह समानरूप से सभी को आश्रय देती है उसी प्रकार विविध दुख, पीड़ा,अपमान,निदा,तिरस्कार करन वालो के प्रति भी मुनि मित्र भाव का ही व्यवहार करे ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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