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________________ सूक्ति सुधा] [१५१ ( १९) धम्माराम चरे भिक्ख। उ०, १६, १५ टीका-भिक्षु सदैव धर्म रूपी बगीचे मे ही, स्व-पर कल्याण कारी मार्ग में ही विचरता रहे । दान, शील, तप और भावना के सुन्दर उद्यान मे ही स्वय विचरे और दूसरो को भी इसी ओर आकपित करता रहे। (२०) दाण भत्ते सणा रया। द०, १, ३ टीका -जो वास्तविक साधु है, वे निर्दोष आहार-पानी की हो गवेषणा करते है। गाय-वृत्ति के समान अथवा भ्रमर की वृत्ति के समार आहार-पानी की वृत्ति को जीवन मे स्थान देते है । (.२१ ) वालुया कवल चेव, निरस्साए उ संजमे। उ०, १९, ३८ टीका-सयम पालना, नैतिक और आध्यात्मिक नियमो को पालना रेत के कणो के समान कठोर है, निस्वाद और नीरस है । किन्तु भविष्य मे इनका परिणाम हितावह है, और कल्याण कारी है, (२२) णो निग्गंथेविभूसाणुवादी हविज्जा। उ०, १६, ग०,९ टीका-जो निर्ग्रन्थ है, जो ब्रह्मचारी है, जो आत्मार्थी है, उसको शरीर की विभूपा, शरीर का श्रृंगार नहीं करना चाहिये ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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