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________________ १२४] [ उपदेश-सूत्र (१५) पावाउ अप्पाण निवट्टएज्जा । - सू०,१०,२१ . टीका-पाप से, कषाय-विकार से,भोगों से, दुष्वृत्तियो की वासना से, कल्याण-इच्छुक पुरुष अपने आप को दूर ही रक्ख । अनिष्ट वृत्तियो से परहेज़ ही करता रहे। ( १६ ) धितिम विमुक्केण य पूयणट्ठी, न सिलोयगामी य परिन्वएज्जा। सू०, १०, २३ टीका-जो आत्महितैषी है, जो सयमी है, वह धैर्य शील रहे। आपत्तियो मे स्व-कर्त्तव्य और सयम से पतित न हो। वह आरभ-परि-ग्रह से विमुक्त रहे । मूर्छा और मूढ-भाव से दूर रहे । मान-सन्मान और पूजा-प्रतिष्ठा की भावना नही रखे। यश-कीर्ति की कामना नही करे । शुद्ध कर्त्तव्य मार्ग पर निरन्तर चलता रहे। इधर उधर 'विचलित न हो। (१७) असाहु धम्माणि ण सवएज्जा। सू०, १४,२० टीका--जो बाते अनुपयोगी है, जो पीडा कारक है, जो अनिष्टकर है, या जो मर्मघातक है ऐसी असत् बाते कभी भी नही कहना चाहिये । न उनका प्रचार ही करना चाहिये । वाणी पर समतोलता सयम आवश्यक है। (१८) पयाई मयाई विगिं च धोरा । सू०, १३,१६
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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