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________________ सूक्ति-सुधा] [.१२३ टीका-महत्वाकाक्षी पुरुष का, कर्तव्य है कि वह जीवनव्यवहार मे आलस्य नही करे । प्रमाद की सेवना नही करे । प्रतिज्ञापालन करते समय और लक्ष्य की पूतिके समय आने वाले उपसर्गों और परिषहों को तथा कठिनाइयो को धैर्यता पूर्वक सहन करे और कृत-सकल्प से विचलित न हो। पिय मप्पियं कस्सइ हो करेजा। - सू०, १०,७ टीका---किसी का भी रागवशात् प्रिय न करे और द्वेष वशात् अप्रिय भी न करे । प्रेम-भाव और वन्धुत्व भावना तो अवश्य रक्खे, परन्तु रागद्वेष जनित प्रियता और अप्रियता से दूर रहे। (१३) . लेसं समाहटु परिवएज्जा ।। . .. सू०, १०, १५ टीका-योग और कषाय की मिश्रित भावना को लेश्या कहते है। ऐसी लेश्या से आत्मा को दूर कर सयम की परिपालना करे । मन और इन्द्रियो को समाधि युक्त बनावे। ' (१४).. ' महावि समिक्ख धम्म, दूरेण पावं परिवज्जएज्जा। सू०, १०,२० टीका-बुद्धिमान् पुरुष और हितार्थी पुरुष, धर्म की मीमासा कर-समीक्षा कर, हित-अहित की पहिचान कर, विवेक-अविवेक का ध्यान कर पाप-कार्य को छोड़ दे। हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, आसक्ति,.. परिग्रह, आदिको दूर कर दे । इनका परित्याग कर दे।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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