SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६] सद्गुण-सूत्र टीका - आत्मा की शांति चाहने वाला अलोलुप होता हुआ इन्द्रियो के रसो मे, इन्द्रियो के भोगो के स्वादो में आसक्त न बने - विषयो मे मूच्छित न हो । वासनाओ मे गृद्ध न हो जाय । } 11 + ( १३ ) जे आसवा ते परिस्सवा.. जे परिस्वा ते आसवा । ← 3 आ०, ४, १३१ उ, २ टीका- जो आश्रव के स्थान है, वे ही भावो की उच्चता के कारण सवर- निर्जरा के स्थान भी हो सकते है । इसी प्रकार जो सवर - निर्जरा के स्थान है, वे ही भावो की, नीचता और दुष्टता के कारण आश्रव के स्थान भी हो जाया करते है । इन सब में मूल कारण भावो की या भावना की विशेषता है । जैसी भावना वैसा फल । बाह्य स्थिति कैसी भी हो, आतरिक स्थिति पर ही सब कुछ निर्भर है । अतएव सदैव शुद्ध भावना ही रखनी चाहिये । 1 ( ** 7 - :, (१४.) श्रवट्टे तु पेहाए इत्य विरभिज्ज वैयंषी ।" आ०, ५, १७०, उ, ६ टीका - राग द्वेष, कषाय, विषय और विकार के चक्र का ख्याल कर, संसार - परिभ्रमण का विचार कर, तत्वदर्शी ज्ञानी इन कषायों से, इन विषयों से, इन वासनाओ से, अपनी आत्मा को वचावे । जीवन 'को निर्मल, निष्कषायीं और अनासक्त बनावे ! """, = 7 ܐܐܙ ( १५ ) मेहावी जाणिज्ज धम्म । आ.० ६, १८८, उ, ४ , ii. अज
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy