SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ __९२] [वैराग्य-सूत्र टीका--जैसे बन्धन से छूटा हुआ ताड-फल गिर पडता है, वैसे ही अचानक आयु के समाप्त होते ही प्राणी भी मर जाते है, इसलिये दान, शील, तप और भावना के प्रति उपेक्षित नही रहना चाहिए। यथा-शक्ति कुछ न कुछ धर्म-क्रियाऐ करते ही रहना चाहिये। , विणि अहिज्ज भोगेसुः ग्राउ परिमि अप्पणो । द०, ८, ३४ टीका-शरीर क्षण भगुर है और आय परिमित है, ऐसा विचा कर काम-भोगो से, इन्द्रिय विपयो मे अपने मन और आत्मा के ___अलग ही रखना चाहिये। उवणिजई जीविय सप्पमाय; मा कासि कम्माई महालयाई । उ०, १३, २६ टीका---यह शरीर विना किसी बाधा के निरन्तर मृत्यु वे समीप चला जा रहा है, प्रति क्षण आयु घटती जा रही है, अचानक मृत्यु आ जाने वाली है, इसलिये महा हिंसक और महान् दुर्गति के देने वाले कर्मों को पाप-पूर्ण कामो को तू मत कर । हे जीव | सत् और असत् का विचार करके कार्य कर। ' . एगो सय पच्चणुहोइ दुस्खें । सू०, ५, २२, उ, २ टीका--जीव अज्ञानवश सारे कुटुम्ब के लिए पाप करता है। झूठ-हिंसा आदिका आश्रय लेकर कुटुम्ब को सुखी करने का प्रयत्न करता है । परन्तु कर्मों का फल भोगने के समय वह अकेला ही भोगता
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy