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________________ प्रकृति कैसे बढ़ती है ? यदि पुण्य-प्रकृति का विकाश नहीं माना . जावे तो एकेन्द्रिय जीव, द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक कैसे पहुँचे ? सम्यक्त्व तो पंचेन्द्रिय को ही प्राप्त होती है, वहाँ तक पुण्यप्रकृति कैसे बंधे ? और सुनिये ! प्रथम गुणस्थान में वर्तते हुए जीव को ११७ प्रकृति का बन्ध बताया है, जहाँ ३९ पुण्य-प्रकृति हैं। वहाँ सकाम निर्जरा तो है नहीं, फिर पिना सकाम निरा के पुण्य-प्रकृति बंधी या नहीं ? इसलिए यही मानना होगा कि पुण्य का उत्पादन निर्जरा के बिना भी हो सकता है और पुण्य रहित निर्जरा भी हो सकती है। यानी एकान्त रूप से पुण्य भी उत्पन्न होता है, और एकान्त रूप से निर्जरा भी होती है। यदि पुण्य रहित निर्जरा का होना न माना जावेगा, तो उस दशा में जीव को कभी मोक्ष हो ही नहीं सकता। क्योंकि निर्जरा के साथ पुण्य को उत्पत्ति आवश्यक मानने पर जीव जैसे जैसे कर्म की निर्जरा करेगा, वैसे ही वैसे पुण्य उत्पन्न होता रहेगा और जब तक पुण्य तथा पाप दोनों ही नहीं छूट जाते, तब तक मोक्ष नहीं हो सकता। ___ मतलब यह कि तेरह-पन्थियों का यह कहना बिलकुल गलत है कि पुण्य तो निर्जरा के साथ ही होता है, निर्जरा के बिना पुण्य नहीं होता। इसके लिए तरह-पन्थी लोग खेत के अनाज 'और घास का जो उदाहरण देते हैं, उसी उदाहरण का उपयोग
SR No.010339
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1942
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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