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________________ ( १४९ ) इस मुलाकात के सम्बन्ध में चूंकि बहुत से प्रश्न मुझ से किये गये है, इसलिए मैं कुछ विस्तार से अपने अनुभवों को व्यक्त करूँगा। सब में पहले मुझे यह कहना है कि में पूज्यजी के पास यह देखने के लिए नहीं गया था कि वे और उनके अधीनस्थ साधु शास्त्रोक्त क्रियाओं का पूरा पूरा पालन करते हैं या नहीं । मेरी ऐसी दृष्टि हो नहीं है। मेरे निकट तो सधे साधु की परीक्षा यह है भी नहीं। मुझे तो जीवन से मतलब है, जोवन को मैं देखता हूँ। वही देखने की चीज है भी। अगर जीवन में साधुत्व हुआ, तो वह खुद घोला करता है । उसे शास्त्रों के विधि-विधानों को आवश्यकता रह हो क्यों जायगी ? ध्येय अपने जीवन का निरन्तर विकास जो दूसरों के जीवन विकास में बाधक तो मदद करता है । यह जीवन विकास ही सच्चा सुख है और सन्तों की भाषा में 'आत्म कल्याण' है । पर यह समझना जरूरी है कि समग्र जीवन एक है, उसके अलग अलग टुकड़े नहीं हो सकते । इसलिए जीवन विकास के ध्येय की प्राप्ति सारे जीवन के विकास से होती है। इसके लिए हमें जीवन के भीतर और बाहर सब जगह शुद्धि का वातावरण चाहिये । संयम, तप और त्याग के द्वारा अपनी शक्तियों का विकास करना तो जरूरी है ही, पर यदि इन विकसित शक्तियों का उपयोग नहीं किया जाय या होता ही नहीं बल्कि २० प्रत्येक मानव प्राणी का करना है - ऐसा विकास
SR No.010339
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1942
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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