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________________ ( १३६ ) ' मानलो कि एक मकान के बाहर साध ठहरे हुए हैं। चोर . उस मकान में से धन चुराकर निकला | महात्मा ने धन चुराकर जाते हुए चोर को देख कर सोचा कि धन चोरी जाने से हम यहाँ ठहरे हुए हैं, इसलिए हमारी भी बदनामी होगी और जैन धर्म को भी लांछन लगेगा। ऐसा सोचकर महात्मा ने चोर को चोरीव्याग का उपदेश दिया । परिणामतः धन वहीं छोड़कर, चोर ने महात्मा से चोरी का प्रत्याख्यान लिया और वहीं बैठ गया। सबेरे धन का स्वामी आया। उसने ताला टूटा देख महारमा से पूछा। महात्मा ने कहा कि यह धन है, और यह चोर है। हमने इसको उपदेश दिया, इससे इसने यह तुम्हारा धन भी छोड़ दिया और सदा के लिए चोरी का त्याग कर दिया। यह सुनकर धन . के स्वामी ने कहा कि आपने इस चोर को उपदेश देकर यह मेरा धन नहीं बचाया है, किन्तु मेरे प्राण बचाये हैं। यदि मेरा वह धन चला जाता, तो मुझे इतना दुःख होता कि मैं मर ही जाता। मैं पापका बहुत उपकार मानता हूँ। इस तरह चोर को चोरी त्यागने का उपदेश देने से चोर भी पाप से बचा और धन का स्वामी भी आर्त ध्यान करके मरने से बचा। धन को तो सुख दुःख होता नहीं है, जो सुख दुःख होता है, वह उसके स्वामी को। इसलिए चोर भी पाप से बच गया, तथा धन का स्वामी भी दुःख, मृत्यु एवं आ ध्यान के पाप से
SR No.010339
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1942
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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